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शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

1575..हिन्दू या मुसलमान ये तय बाद में हुआ

स्नेहिल नमस्कार
-–---–
क़लम की नोंक रगड़ने से
 स्याही लीपने-पोतने से
बड़े वक्तव्यों से
आक्रोश,उत्तेजना,अफ़सोस 
या संवेदना की भाव-भंगिमा से
नहीं बदला जा सकता है
 किसी का जीवन,
समाज की विचारधारा
देश की दुर्दशा
पर घर बना लेती हैंं 
मन की तह में
व्यवहार की
तल्ख़ियाँ।
★★★
आइये आज की रचनाओं का आनंद लेते हैं-

जो ख्वाब थे सुहाने
वो तोड़-तोड़ बेचे
बचपन था उन से छीना  
फिर बेच दी जवानी
जिस में घना अँधेरा
ऐसी लिखी कहानी
इंसानियत का परचम

★☆★☆★☆★

नफ़रत़ोंं के नाम
हिन्दू या मुसलमान
 ये तय बाद में हुआ
जब जन्मा किसी को
तो माँ ही बनी
हिन्दू या मुसलमान
ये तय बाद में हुआ
जब विदा हुई तो एक बेटी ही थी
कंगन खुले या आरसी मूसफ 
ये तय बाद में हुआ

★☆★☆★☆★

किताबें

सुकून था अलग पढ़ने का किताब से
लिखने का दवात से अलग ही मज़ा था
फिर देखते देखते किताबों की जगह किंडल ने लेली
दवात को बटन ने पछाड़ दिया था
किंडल स्टेटस सिंबल बन गए थे
किताबों को कोने में मायूस रोते देखा था
धूल जमती चले गयी उसपे
संदूकों में उसे जाते देखा था
कम होती गयी थी लिखने की रफ़्तार मेरी
बटन पर उँगलियाँ तेज़ी से दौड़ते देखा था



गुलाब की पंखुड़ियों सा
कोई कोमल भाव
मेधा पुर में प्रवेश कर
अभिव्यक्ति रूपी मार्तंड की
पहली मुखरित किरण
के स्पृश से
मन सरोवर में

★☆★☆★☆★

गज़ल
 मेरे विचार मेरी अनुभूति
खजाना लूटना इतना सहज था ?
मिलाया साथ में उस पासबां को |

बहुत तो बोलते थे, मौन क्यों अब ?
हुआ क्या रहनुमा के उस जुबां को ?

गरीबो में भी’ प्रतिभा होती’ है पर
उपेक्षा तो धनी करते खूबियाँ को |

★☆

लेकिन शुक्र हैं जिस पहले होटल में कोच्चि से मुन्नार जाते रास्ते में केले के पत्ते पर केरला का भोजन सद्या खाया उसमे बहुत स्वाद था और सभी को पसंद भी आया | अनानास से बनी एक सब्जी खूब पसंद आई | चटनी में स्वाद था और गुड़ नारियल से बना खीर भी स्वादिष्ट था| लेकिन शंका थी कि ये होटल ख़ास टूरिस्टों के लिए था इसलिए इसके भोजन में उत्तर भारतीय स्वाद की मिलावट जरूर की गई होगी | शंका जल्द ही सही भी हो गई जब थेकड़ी , पेरियार में खाने बैठे और उसने पूछा केरल चावल या  प्लेन तो केरल के खाने के  अति उत्साह में बिना देखे कह दिया केरल का चावल दीजिये | लाई  जैसे मोटे मोटे और कुछ कुछ लालिमा लिए चावल को खाना  सच में आसान नहीं था | फिर उनकी सब्जियों और सांबर का स्वाद भी पसंद नहीं आया |

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कल का अंक पढ़ना न भूलेंं कल आ रहीं हैं
विभा दी विशेष अंक के साथ।
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श्वेता सिन्हा

8 टिप्‍पणियां:

  1. देव जागरण एकादशी शुभ हो...
    बेहतरीन पंक्तियाँ..
    क़लम की नोंक रगड़ने से
    स्याही लीपने-पोतने से
    बड़े वक्तव्यों से
    आक्रोश,उत्तेजना,अफ़सोस
    या संवेदना की भाव-भंगिमा से
    नहीं बदला जा सकता है
    किसी का जीवन,
    समाज की विचारधारा
    देश की दुर्दशा
    पर घर बना लेती हैंं
    मन की तह में
    व्यवहार की
    तल्ख़ियाँ।
    सादर...

    जवाब देंहटाएं
  2. क़लम की नोंक रगड़ने से
    स्याही लीपने-पोतने से
    बड़े वक्तव्यों से
    आक्रोश,उत्तेजना,अफ़सोस
    या संवेदना की भाव-भंगिमा से
    नहीं बदला जा सकता है
    किसी का जीवन,
    समाज की विचारधारा
    देश की दुर्दशा
    पर घर बना लेती हैंं
    मन की तह में
    व्यवहार की
    तल्ख़ियाँ।
    #सहमति

    सराहनीय प्रस्तुतीकरण

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रणाम।
    कलम और स्याही की ताक़त को कम आंकना उन लोगों का काम हो सकता है जो आलोचना नहीं सह सकते, अनुचित व्यवहार के जन्मने का कारण है किसी आलोचक की आलोचना का गलत मतलब निकलना या उस आलोचक की बात को हलक से ना उतार पाना।

    क्या हिंदी साहित्य के सुविख्यात आलोचक नामवर सिंह जी ने हमें सही राह नहीं दिखाई?
    🙏
    क्या कलम और स्याही के संगम से निकले
    रामायण, महाभारत, उपनिषद, वैध पुराण, चरक सहिंता, कुरान, बाइबिल, बौद्ध वक्तव्यों ने व्यकि, समाज, और देश की विचारधारा को बदल कर नहीं रख दिया है??
    केशरीसिंह बारहठ ने "चेतावनी रा चुंगठिया" लिख कर राणा फतेह सिंह को गुलामी स्वीकार करने से बचा लिया था।
    दुष्यंत जी के शेरों ने क्रांति को प्रखर बना दिया था
    दिनकर जी की कलम ने मुर्दे पड़े जवानों में जोश भर दिया था।
    "पाश" जी ने समाज को एक नई दिशा दी।
    रविन्द्र नाथ टैगोर जी समाज को बदलने में कितने कामयाब रहे थे।
    सत्य और अहिंसा पर बल देते गांधी जी के वक्तव्यों ने कितने लोगों के मानस को पूर्णत बदल दिया था।
    ओशो के साहित्य ने एक लीक से हटकर सोचने पर मजबूर कर दिया था आम-जन को।
    माओ, रूसो, मार्क्स से प्रभाभिवत लोग क्या बदल नहीं गए थे।
    राम प्रसाद बिस्मिल नोजवानों में क्या जोश भरा कि
    "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे है...
    गाते गाते फांसी को चूम लिया था वीरों ने... खुद भी बदले और समाज के लिए बदलने की राह बना गए।

    खैर
    आपकी बात पर आता हूँ

    कमल व दवात से उपजे भावों से, कोमल अहसासों से, आक्रोश से, संवेदना से, जोश से व्यक्ति, समाज, देश नहीं बदला जा सकता तो किससे बदलेगा???
    फिर कवियों का, आलोचकों का, लेखकों का मक़सद क्या है???

    सुंदर लिंक्स।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी प्रणाम,
      क़लम और स्याही से वो सबकुछ बदला जा सकता है जिसका ज़िक्र आपने किया है समाज, देश, मानव जीवन की दिशा और दशा में क्रमशः परिवर्तन में क़लम की भूमिका नकारने का कोई प्रश्न नहीं है।

      आलोचना का सदैव अभिनंदन किया जाना चाहिए आलोचना आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करती है विचारों को नवीन दृष्टिकोण प्रदान करती है।
      आलोचना आत्म प्रक्षालन के लिए अति आवश्यक है ऐसा हम मानते हैं।

      महोदय जिस समाजिक,वैचारिक बदलाव की आप बात कर रहे हैं जिनके द्वारा यह बदलाव संभव हुआ उनका जीवन उदाहरण है उन्होंने सर्वप्रथम उन विचारों को आत्मसात किया,अपने दैनिक क्रियाकलापों मेंं उन सिद्धांतों का अनुकरण किया,अनगिनत त्याग और बलिदान किये अपने स्वार्थ अपने सुख-दुख से ऊपर उठकर जनमानस के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिये इनके विचारोंं का प्रभाव से परिवर्तन होना ही था.. आज अपनी सहूलियत से जीवन जीने वाले हम साहित्यकार,कवि,रचनाकार का तमगा लगाये फिरते है दर्शन बघारते ह़ै चार लाइन लिखना जाने न जाने स्वयं को महान साहित्यकार के अवतार समझने लगते हैं प्रत्येक विषय में न्यायाधीश की भूमिका में फैसला सुनाते हैं।
      छोटी सी मनमुताबिक बात न हुई तो पलभर में भड़ककर सामने वाले के सम्मान को अपनी कटु शब्दों के उपहार देने में ज़रा भी नहीं चूकते..।
      विनम्रता और सम्मान की भाषा का त्याग कर सिर्फ़ आक्रोश से क्या बदलाव ला पायेंगे ??
      लोग जब हमारे व्यवहार के आकलन में उलझे रहेंगे तो विचार कब सुनेगे और कितना समझेंगे।
      जोर चिल्लाने से सही बात भी झगड़ा ही समझ लिया जाता है।
      किसी भी बात को रखने का आक्रोशित तरीका कितना प्रभावशाली हो सकता है??

      आप शायद मेरी लिखी भूमिका का मतंव्य समझ रहे ह़ोगे।
      सादर आभार आपकी प्रतिक्रिया का।

      हटाएं
  4. अव्यवहारी और व्यक्तिगत लांछन मात्र लिखने से कोई नहीं बदलता।
    लेकिन यही आक्रोशित भाव पूरे समाज की व्यवस्था, देश की दुर्दशा को ललकारने लगे तो बदलने की सोचनी पड़ेगी।

    मैं आप से सहमत हूँ। पहले जीना पड़ता है, फिर दर्द सहना पड़ता है तब लिखा जाता है। हम सभी को क्या इस राह पर नहीं चलना चाहिए??

    जवाब देंहटाएं
  5. मेरी पोस्ट इस अंक में शामिल करने के लिए धन्यवाद |

    जवाब देंहटाएं
  6. "कलम देश की बड़ी शक्ति है
    भाव जगाने वाली ।
    दिल ही नही, दिमागों में भी
    आग लगाने वाली।
    या तलवार पकड़ जीतोगे
    बाहर का मैदान।
    दो में से तुम्हे, क्या चाहिए?
    कलम या कि तलवार!"

    जवाब देंहटाएं

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