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गुरुवार, 24 मई 2018

1042....थम जाती रह-रहकर हवा खरके न पात-पाती ...

सादर अभिवादन। 
अति कटु है  तपिश  मास ज्येष्ठ की  
बरबस याद आती रस भरे फल श्रेष्ठ की 
थम जाती रह-रहकर  हवा खरके न पात-पाती 
आमों के बाग़ में कोयल मोहक मधुर गीत गाती।   

आइये अब चलते हैं आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर -


परियों के देश से क्‍या धरती पे आ रही है ...
डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट "आकुल"


संदेश मैं प्रकृति का आई यहाँ बताने,
मानव  की’ बेरुखी ही धरती को’ खा रही है.
खो जाउँगी न भू पर यदि स्‍वच्‍छता रहेगी,
इस डर से ति‍तलियों में मायूसी’ छा रही है. 



post-feature-image

काम पूरा होने के बाद जब प्रतिमा जाने लगी, तब शिल्पा ने उसे दो मिनट रुकने कहा। प्रतिमा ने गुस्से से ही कहा, ''अब और क्या काम हैं? पहले ही मुझे देरी हो रहीं हैं।'' 

''अरे, सिर्फ़ दो मिनट।'' शिल्पा ने उसे खुर्ची पर बैठने कहा। एक प्लेट में गरम नाश्ता और मिठाई लेकर आई। प्रतिमा को मिठाई खिलाते हुए शिल्पा बोली, ''जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई, प्रतिमा!'' प्रतिमा एकदम से आश्चर्यचकित हो गई। खुशी के मारे उसकी आंखे भर आई!



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 यहाँ ऊपर से पूरी नुब्रा घाटी नजर आती है ..सुंदर..नयनाभि‍राम। हमने बहुत सी तस्‍वीरें उतारी। अब हम मंदि‍र में थे । वहाँ बुद्ध शाक्‍य मुनि‍ की प्रति‍मा थी। गुरू पद्मनाभम के साथ ही अन्‍य भी। तभी हमने मूर्ति की फोटो ली। यहाँ एक पुजारी बैठे थे। उन्‍होंने मना नहीं कि‍या। मगर जब मेरी तस्‍वीर मूर्ति के साथ ली गई और साथ में पुजारी भी उसी फ्रेम में आ रहे थे। उन्‍होंने अपनी आंखे बंद कर ली। जब तस्‍वीर क्‍लि‍क हो गई तो कहने लगे कि‍ ये आपने अच्‍छा नहीं कि‍या। अब आपके साथ जरूर कुछ बुरा होगा। हमने बोला - ये क्‍या बात हुई। जब तस्‍वीर नहीं उतारनी थी तो क्‍लि‍क करने से पहले ही मना करते। 


आसार नजर आ रहे हैं बेवकूफ होशियारों में शामिल हो कर जल्दी ही उजड़ने जा रहे हैं..... डॉ. सुशील कुमार जोशी 

चारों तरफ से 
हो रहे होशियारों 
के हल्ले गुल्ले में से 
होशियारी निकाल 
कर होशियार 
हो लेने के 
मंसूबे बना रहे हैं 




मचलें जब सागर की लहरें,
चंदा को बाँहों में भरने,
जब उफने उदधि किनारों पर,
तब एकाकी मँझधारों पर,
ढूँढ़े नैया अपना केवट !!!


Image result for दादी का चित्र

बोलो माँ ! आज कहाँ तुम हो ,
 है अवरुद्ध कंठ और सजल नयन 
बोलो ! माँ आज  कहाँ  तुम हो ?
कम्पित अंतर्मन -कर रहा प्रश्न -
बोलो माँ आज कहाँ तुम हो ? 
जिसमे   समाती  थी  धार मेरे दृग जल की, 
 खो गई वो  छाँव  तेरे  आँचल की ;



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 मीना सुबह से बरगद की टहनी ला देने के लिए अनुरोध पर अनुरोध कर रही थी... पिछले साल जो टहनी लगाई थी वह पेड़ होकर, उसके बाहर जाने की वजह से सूख गई थी... वट-सावित्री बरगद की पूजा कर मनाया जाता है... फर्श पर गिरती मीना के हांथ में बेना आ गया... बेना से ही अपने पति की धुनाई कर दी... घर में काम करती सहायिका मुस्कुरा बुदबुदाई "बहुते ठीक की मलकिनी जी... कुछ दिनों पहले मुझ पर हाथ डालने का भी बदला सध गया..."।

हम-क़दम के बीसवें क़दम
का विषय...

आज के लिए बस इतना ही। 
मिलेंगे फिर अगले गुरूवार। 
रवीन्द्र सिंह यादव 

10 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात भाई जी
    बढ़िया चार लाइना
    रचनाएं भी सटीक
    साधुवाद
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. शुभ प्रभात व सस्नेहाशीष संग आभार
    सराहनीय प्रस्तुतीकरण

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर प्रस्तुति। आभार रवींद्र जी जगह देने के लिये।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर प्रस्तूतिकरण। मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद रविन्द्र जी।

    जवाब देंहटाएं
  5. बेहतरीन प्रस्तुतिकरण उम्दा लिंक संकलन....

    जवाब देंहटाएं
  6. आदरणीय रवीन्द्र जी -- आज के अंक की छोटी सी भूमिका में तपते ,आग उगलते जेठ मास में इसकी तपन के साथ खूबियाँ भी साथ साथ याद आ गई | यूँ तो आजकल तरबूज , खरबूजे , आम इत्यादि फल पूरा साल मिलते हैं पर इन रसीले मधुर फलों के सेवन का आनंद जो इस भीषण गर्मी के मौसम में आता है वो किसी और मौसम में नहीं आता | सड़कों और तपते रास्तों के किनारे इन फलों का ढेर लगाये ग्राहकों की बाट जोहती आशावान आँखें किसी और मौसम में कहाँ नजर आती हैं ? हम लोग इस गर्मी से जहाँ घरों में दुबक जाते हैं ये लोग तपती झुलसाती लू में भी रास्तों पर डेरा जमाये रहते हैं | नदियों के किनारे इस फलों के उपजाने वाले किसान ज्यादातर छोटे किसान होते हैं जिनकी साल भर आजीविका इन फलों पर निर्भर होती है | वे महीनों पहले इन फलों को उपजाने में उत्साह से जुट जाते हैं |इन रसीले फलों के पीछे उन की अनथक मेहनत को ना भुलाया जाये , जिसकी बदौलत हमे बहुत ही कम दामों पर इतने रसीले फल उपलब्ध होते हैं | आज के सभी अंक देखे बहुत ही शानदार हैं सभी | सभी पर लिखा केवल रश्मि शर्मा जी के सुंदर चित्र श्रृंखला से सजे लेख पर लिखना संभव ना हो पाया , हालाँकि मैंने बहुत कोशिश की | उन्हें इसी मंच से मेरी हार्दिक बधाई सुंदर यात्रा संस्मरण के लिए | मेरे लेख के साथ मेरे नए ब्लॉग को भी पञ्च लिंकों में पहली बार स्थान मिला जिससे बहुत ख़ुशी हुई | आपका सादर आभार और हार्दिक बधाई सुंदर लिंक संयोजन के लिए |सभी सहयोगी रचनकारों को सस्नेह शुभकामनाये | सादर ------

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  7. आदरणीय रवीन्द्र जी
    शुभसंध्या,
    तपते महीने को काव्यात्मक पंक्तियोंं में समेट कर सुंदर भूमिका लिखी आपने।
    रचनाएँ सभी बहुत ही अच्छी है। एक सुंदर अंक के लिए आभार आपका।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत बढ़िया सामयिक,मौसमी प्रस्तुति आदरणीय रवींद्रजी की। सच में जानलेवा है जेठ की तपिश....सुबह दस से शाम चार बजे तक घर से बाहर ना निकलें, गर्मी और लू से कैसे बचें, आदि चेतावनियाँ आ रही हैं किंतु कितने लोग ऐसे हैं जो इन पर अमल कर पाते हैं ? कहीं एक कहानी पढ़ी थी - सास ने तीन बहुओं से पूछा,'कौनसा मौसम सबसे अच्छा है ?' पहली बहु ने कहा - जाड़े का।
    दूजी ने कहा - बारिश का ।
    तीसरी गरीब परिवार की बेटी थी। उसने जवाब दिया -
    'हुए' का मौसम सबसे अच्छा है यानि जब हमारे पास सुख-सुविधाएँ हों, वही मौसम सबसे अच्छा है।
    गरीबों के लिए तो हर मौसम एक नए संघर्ष का मौसम है।
    आज की सुंदर रचनाओं के मध्य मेरी रचना को स्थान देने के लिए सादर आभार !

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  9. अच्छी भूमिका
    सुंदर लिंक्स दिए हुए है।

    जवाब देंहटाएं

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