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रविवार, 30 अप्रैल 2017

653....चाँद का बिना किसी दाग के होना क्या एक अजूबा सा नहीं हो जाता है

सादर अभिवादन
आज के सरदार भाई विरम सिंह आज भी नहीं दिखे
लगता है शायद उनकी इच्छा नहीं है ....

यहां के लिए प्रस्तुति बनाने की
चलिए कल नया टाईम -टेबल तैय्यार करती हूँ
चलिए आज का अंक देखिए...



कब साकार होगा नशा मुक्त देवभूमि का सपना....कविता रावत
कुछ भी हो लेकिन अब सम्पूर्ण उत्तराखंड में हो रहे शराबबंदी के आंदोलनकारियों के इरादों से स्पष्ट है कि अब वे किसी भी प्रकार से सरकार के झांसे में नहीं आने वाले हैं। इसके लिए उन्होंने कमर कस ली है कि अब वे तभी मैदान से हटेंगे, जब उत्तराखंड सरकार पूर्ण शराबबंदी की घोषणा करने के लिए मजबूर न हो जाय। 
वे दृढ़ संकल्पित हैं कि इस बार वे 
‘कोउ नृप होउ हमहि का हानी। 
चेरी छोड़ि अब होब कि रानी।“ 
की तर्ज पर सरकारों के चोलाबदली और जड़ राजनेताओं के झूठे आश्वासनों के दम पर नहीं, अपितु दुर्गा-काली बनकर देवभूमि से दानव रूपी शराब का खात्मा कर नशा मुक्त देवभूमि का सपना करेंगे।



किस ज़माने, की बात करते हो ! 
ये जमाना हैं, दिल्लगी के लिए !! 
मेरा औरों से,, वास्ता क्या था ! 
मैं यहाँ हूँ तो, आप ही के लिए !! 

ये है हमारी रूदाद..
शनासाई सी ये पच्चीस वर्ष 
शरीके-सफर के साथ
सबात लगाते हुए
असबात कभी अच्छी कभी बुरी की..
ताउम्र बेशर्त शिद्दत से निभाते रहे..


मैं जवान हूँ , मैं किसान हूँ 
मारो मारो, मारो मुझको 
जब भी हक़ की बात करूँ 
तो चौखट से दुत्कारो मुझको

दूर अँधेरे में चमकती एक बत्ती,
पहले एक छोटे-से बिन्दु की तरह,
फिर धीरे-धीरे बढ़ती हुई,
पास, और पास आती हुई.

उधर केदार बाबू के आँखों से आँसू थम ही नहीं रहे थे और ये 
वे मन में सोच रहे थे कि "मैं लोगों से आज तक रीमा और 
अपने बारे में प्रेमालाप की झूठी बातें फैलता रहा वो अपने 
मन में बोल रहे थे कि "धिक्कार है मुझ पर !
रीमा सोच रही थी दो सहेलियों से मिला सुझाव
पहली सहेली  "मुँह पर चप्पल मारो"
दूसरी सहेली "घर जाकर राखी बाँध आओ"


बेचैनी से घूमते हवाजनित ये रोग
राजनीति के पेंच में उलझे उलझे लोग

क्या देना क्या पावना जब तन त्यागे प्राण
तड़प तड़प के हो गई याद मीन निष्प्राण

एक चाँद बिना दाग......डॉ. सुशील कुमार जोशी
चाँद का बिना
किसी दाग के
होना 
क्या एक
अजूबा सा नहीं
हो जाता है

वैसे भी 
अगर 
चाँद की बातें
हो रही हों
तो दाग की
बात करना
किसको 
पसंद 
आता है


इस अंक के लिए चयनित रचनाओं के रचनाकारों को
प्रकाशनोपरान्त सूचना दूँगी
सादर..
यशोदा.....

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

652 ...मुस्कान



सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष



क्या करती हो दिन भर... सुनना अच्छा लगता
खलिहर जब कि कोई अब नहीं कहता


तलवे का तिल
मुझे चादार की घूंघट से झांक कर देखता है,
तुम फिर करवट बदलती हो
वो छिप जाता है  |
जब तुम त्योहारों पर आंगन में बैठी
कुछ गुनगुना कर, पैरों में आलता लगा रही होती होती हो
थोड़े से तलवे उठा कर पीछे की बेड़ियां जोड़ रही होती हो
और मैं वहीं से गुज़र रहा होता हूँ


बैगन का भर्ता
भगवान की मूर्ति पर पड़ी | उसने देखा भगवान ने
आश्चर्य से अपने दांतों तले उंगली दबा ली है |
उसने पूजा घर जूठा कर दिया था |
छोटी बहू को बड़ा गुस्सा आया |
....मुझे खाने का मन था | मुझे कहीं जगह न मिली
तुम्हारे घर आयी तो तुमको भी बुरा लग गया |
गुस्से में उसने अपनी हंडी भगवान के मुंह पर दे मारी |
भगवान के दांत से उनकी उंगली निकल गयी |

मुस्कान
कुछ की नजरों में
मुझे
उम्मीद दिखती है,
कुछ के हाथों में
जिम्मेदारियाँ,

खाली पेट
जिम्मेदारियाँ।

कभी कभार,
मैं उनकी भूख
बाँट लेता हूँ,



मैं एक हारा हुआ जुवारी .
या रिश्तों की भीख का व्यापारी??
याद है मुझे,
जब अचानक मेरी झोली में.
अर्पित हुआ था तुम्हारे प्रेम का दान.
और दक्षिणा में था मिला,
कुछ फेरों का वरदान.



विभा रानी श्रीवास्तव




शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

651....लाश, कीड़े और चूहों की दौड़

सादर अभिवादन
कल के अंक में वाकई आनन्द आ गया

साधुवाद, आदरणीय भाई डॉ. रूपचन्द्र जी शास्त्री जी 

हृदय से आभार प्रेषित करती हूँ..

आज की रचनाओं में...
इस ब्लॉग में पहली बार
अल्मोड़ा से दिखती हिमालय श्रंखला
हुस्न पहाड़ों का....हर्षिता विनय जोशी
उत्तराखंड में पले बढे होने के कारण बरफ से ढके हुये पहाड़, आँखों के सामने चमचमाती हिमालय श्रृंखला, उनसे निकल कर कल कल बहती नदियों और मीठे पानी के झरनों का साथ बचपन से ही हमारे साथ बना रहा है।  ये प्राकृतिक सौंदर्य हमारे रोज मर्रा के जीवन में इस तरह से सम्मिलित था कि कभी ये विचार मन में आया ही नहीं कि जिंदगी इससे इतर भी हो सकती है।


मैं नदी हूँ....साधना वैद
बहती रही 
अथक निरंतर 
मैं सदियों से 


" मेरी दादी "....अर्चना सक्सेना
मेरी दादी बड़ी ही प्यारी
मुझ पर जान लुटाने वाली
जब भी मैं हूँ गाँव को जाता
मुझको बाँहों में भर लेती 
फिर माथे और हथेलियों को
जी भर के है चूमा करती 



छंदमुक्त...ऋता शेखर 'मधु'
दुःख के पके पत्ते गिरे
मन की संधियों से झाँकने लगीं 
कोंपलें सुख की 
वह तूफ़ान 
जो ले गया दूर 
जीवन के विक्षत पन्ने 


ग़ज़ल...कालीपद "प्रसाद"
वो अश्क भरा चश्म, समुन्दर न हुआ था 
उस दीद से’ दिल भर गया’, पर तर न हुआ था | 

तू दोस्त बना मेरा’ चुराकर न हुआ था 
संसार कहे कुछ भी’ सितमगर न हुआ था | 


बस मिले थे....पुरुषोत्तम सिन्हा
चंद बिसरी सी बातें, चंद भूले से वादे,
बेवजह की मुफलिसी, बेबात की मनमानियाँ,
बे इरादा नैनों की वो नादान सी शैतानियाँ,
पर कहाँ बदल सके वो, हालात के चंद बिगड़ते से पल...


चूहों की दौड़.....डॉ. सुशील कुमार जोशी

‘उलूक’ समझ ले 
दूर से बैठकर 
तमाशा देखने 
वाले कीड़े 
कामचोर 
कीड़े होते हैं 

लाश के बारे में 
सोचते हैं 
और मातम 
करते हैं 
बेवकूफ होते  हैं
और रोते हैं । 

आज्ञा दें यशोदा को..
जाते-जाते एक मिनट का समय और लूँगी
बताना था..आदमियों की सब से बड़ी कमजोरी क्या है
अब क्या बताऊँ..खुद ही देख लीजिए















गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

"अतिथि चर्चा-अंक-650" (चर्चाकार-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

प्रथम नमन माँ शारदे, दूजा कलम-दवात। 
माता जब हों साथ तो, बन जाती हर बात।।
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बिना साज संगीत के, बजा रहा हूँ साज।
पालन अतिथि धर्म का, करता हूँ मैं आज।।

शब्दों से मत कीजिए, कोई तोड़-मरोड़।
जो उपयोगी हैं नहीं, उन्हें दीजिए छोड़।।

क्या आदमी सच में आदमी है ? 

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भैंसे से जब आदमी, जोत रहा हो खेत।
पानी बरसा गगन से, कुदरत हुई सचेत।।
! कौशल ! पर Shalini Kaushik  
तिनका-तिनका जोड़कर, बना लिया जब नीड़।
देख सलोना घोंसला, मिटी ह़दय की पीड़।।
लम्हों का सफ़र पर डॉ. जेन्नी शबनम

उम्र के खत 

(अमृता प्रीतम) 

...यह मेरी ज़िन्दगी की सड़क कैसी है,जिसके सारे मील के पत्थर हादसों  के बने हुए हैं ।तुम थे तो घर नहीं था ।आज घर है तो तुम नहीं हो  थोड़े से मीलो की दूरी होती है ,पर एक कानून की छोटी सी मोहर उसे दूसरी दुनिया की दूरी बना देती है ।मैं अजीब तरह से परेशान हूँ और ऐसा लग रहा है जैसे यह बेचनी मेरी उम्र जितनी लम्बी है ,या मेरी उम्र का नाम ही बैचनी है ।
29 .3.62
आशी 
ranjana bhatia 

----- ।। उत्तर-काण्ड ५६ ।। ----- 

 पुनि जलहि कर जोर जोहारे | 
सजिवनिहु जियन तुअहि निहारे || 
आरत जगत राम सुखदाता | 
त्रसित जीउ के रामहि त्राता... 
NEET-NEET पर Neetu Singhal  

सुकुमा काण्ड पर तीन कविताएँ 

मिसफिट Misfit पर गिरीश बिल्लोरे मुकुल 

क्या हादसा ये अजब हो गया..... 

महेश चन्द्र गुप्त ‘ख़लिश’ 

क्या हादसा ये अजब हो गया 
बूढ़े हुए, इश्क़ रब हो गया 
चाहत का पैग़ाम तब है मिला 
पूरा सभी शौक जब हो गया... 
मेरी धरोहर पर yashoda Agrawal  
कविता : 
हिंदी 
हिंदी दिवस पर अरमान लगाए रखना,
हिंदी में बिंदी लगाकर,
इसकी पहचान बनाए रखना | 
इस संसार में भाषाएँ है अनेक, 
उनमें से हिंदी भाषा है एक  | 
रंग लाएगी एक शब्द बोलकर देखो 
न होगी कोई कठिनाई,
बाजार में बाल काट रहा होगा नाइ | 
नहीं आएगी तो चिल्लाओगे माई -माई,
क्योंकि लगा दिया है हमने,

हिंदी में बिंदी भाई |
बाल सजग 
हिन्दी उर्दू भाषाएँ व लिपियाँ -  
नवीन 
"फ़ारसी लिपि (नस्तालीक़) सीखो नहीं तो हम आप की ग़ज़लों को मान्यता नहीं देंगे" टाइप जुमलों के बीच मैं अक्सर सोचता हूँ क्या कभी किसी जापानी विद्वान ने कहा है कि "हाइकु लिखने हैं तो पहले जापनी भाषा व उस की 'कांजी व काना' लिपियों को भी सीखना अनिवार्य है"। क्या कभी किसी अंगरेज ने बोला है कि लैटिन-रोमन सीखे बग़ैर सोनेट नहीं लिखने चाहिये।

मेरा स्पष्ट मानना है कि:-
तमाम रस्म-उल-ख़त* सरज़मीन हैं जिन पर। ज़ुबानें पानी की मानिन्द बहती रहती हैं॥ *लिपियाँ
उर्दू अगर फ़ारस से आयी होती तब तो फ़ारसी लिपि की वकालत समझ में आती मगर यह तो सरज़मीने-हिन्दुस्तान की ज़ुबान है भाई। इस का मूल स्वरूप तो देवनागरी लिपि ही होनी चाहिये - ऐसा मुझे भी  लगता है। हम लोगों ने रेल, रोड, टेम्परेचर, फ़ीवर, प्लेट, ग्लास, लिफ़्ट, डिनर, लंच, ब्रेकफ़ास्ट, सैलरी, लोन, डोनेशन जैसे सैंकड़ों अँगरेजी शब्दों को न सिर्फ़ अपनी रोज़मर्रा की बातचीत का स-हर्ष हिस्सा बना लिया है बल्कि इन को देवनागरी लिपि ही में लिखते भी हैं। इसी तरह अरबी-फ़ारसी लफ़्ज़ों को देवनागरी में क्यों नहीं लिखा जा सकता। उर्दू के तथाकथित हिमायतियों को याद रखना चाहिये कि देवनागरी लिपि उर्दू ज़ुबान के लिये संजीवनी समान है... 


ठाले बैठे 
सुमन की पाती 

बावरा मन 
तू इसमें रहेगा 
और यह तुझ में रहेगा  
रेम में डूबे जोड़े हम सब की नजरों से गुजरे हैं, एक दूजे में खोये, किसी भी आहट से अनजान और किसी की दखल से बेहद दुखी। मुझे लगने लगा है कि मैं भी ऐसी ही प्रेमिका बन रही हूँ, चौंकिये मत मेरा प्रेमी दूसरा कोई नहीं है, बस मेरा अपना मन ही है। मन मेरा प्रेमी और मैं उसकी प्रेमिका। हम रात-दिन एक दूजे में खोये हैं, आपस में ही बतियाते रहते हैं, किसी अन्य के आने की आहट भी हमें नहीं होती और यदि कोई हमारे बीच आ भी गया तो हमें लगता है कि अनावश्यक दखल दे रहा है। मन मुझे जीवन का मार्ग दिखाता है और मैं प्रेमिका का तरह सांसारिक ऊंच-नीच बता देती हूँ, मन कहता है कि आओ कहीं दूर चलें लेकिन मैं फिर कह देती हूँ कि यह दुनिया कैसे छोड़ दूं? मन मुझे ले चलता है प्रकृति के निकट और मैं प्रकृति में आत्मसात होने के स्थान पर गृहस्थी की सीढ़ी चढ़ने लगती हूँ। हमारा द्वन्द्व मान-मनोव्वल तक पहुंच जाता है और अक्सर मन ही जीत जाता है। मैं बेबस सी मन को समर्पित हो जाती हूँ। मन मेरा मार्गदर्शक बनता जा रहा है और मैं उसकी अनुयायी भर रह गयी ह.... 
अजित गुप्ता का कोना 

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

649....रास्ते का खोना या खोना किसी का रास्ते में

सादर अभिवादन
आज छः सौ उनन्चासवां अंक
खुशी है, आनन्द है और हर्ष भी है
आपके इस ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द में" 
प्रारम्भ हो गई अतिथि चर्चाकार को आमंत्रित करने की परम्परा
और इस परम्परा की दूसरी कड़ी कल प्रकाशित होगी
आज की स्थिति में दो अतिथि घऱ पर हैँ
कौन आएगा कल..ये राज़ है...राज़ ही रहने देते हैं

चलिए आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर..



श्वेत श्याम मनोभाव....श्वेता सिन्हा
एक धरा से  पड़ा मिला
दूजा आसमां में उड़ा मिला,
एक काजल सा तम मन
दूजा जलता कपूर सम मन,
कभी भाव धूल में पड़े मिले
कभी राह में फूल भरे मिले,




"अमलतास के झूमर"......डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ये मौसम की मार, हमेशा खुश हो कर सहते हैं,
दोपहरी में क्लान्त पथिक को, छाया देते रहते हैं,
सूरज की भट्टी में तपकर, कंचन से हो जाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।


उल्लास....फुरुषोत्तम सिन्हा
पलछिन नृत्य कर रहा आज जीवन,
बज उठे नव ताल बज उठा प्राणों का कंपन,
थिरक रहे कण-कण थिरक रहा धड़कन,
वो कौन बिखेर गया उल्लास इस मन के आंगन!


स्याही से लिखी तहरीरें....साधना वैद
बचपन में जब लिखना सीख रही थी
स्लेट पर बत्ती से जाने क्या-क्या
उल्टा सीधा लिखती थी  
फिर उन विचित्र अक्षरों और
टेढ़ी मेढ़ी आकृतियों को देख
खूब जी खोल कर हँसती थी !


सुख-दुःख जुटाया है...डॉ. जेन्नी शबनम
तिनका-तिनका जोड़कर  
सुख-दुःख जुटाया है  
सुख कभी-कभी झाँककर  
अपने होने का एहसास कराता है  


पता तो बता दो....डॉ. सुशील कुमार जोशी

कुछ पता ही नहीं 
क्या खोया वो 
या उसका रास्ता 
किससे पूछे 
कहाँ जा कर कोई 
भरोसा उठ गया
‘उलूक’ जमाने का 
उससे भी और 
उसके रास्तों से भी 
पहली बार 
सुना जब से 
रास्ते को ही 
साथ लेकर अपने 
कहीं खो गया कोई ।

आज्ञा दें यशोदा को

अरे हाँ .....याद आया
आपने कोकाकोला तो पिया ही होगा
ये पीने के अलावा एक और काम करता है
जंग साफ करने का...अब जंग लिकालने हेतु 

मंहगा रस्ट रिमूव्हर खरीदने की ज़रूरत नहीं

देखिए इस तरह काम करता है ये....








मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

648.....चिकने घड़े, चिकने घड़े की करतूत के ऊपर बैठ कर छिपाते हैं

बहुत गरम है रायपुर..
मन तो करता है कि, सारा ताम-झाम छोड़ कर
शिमला में बस जाऊँ 31 जून तक
असम्भव को सम्भव बना लूँ
जून के महीनें में एक दिन और जुड़वा लूँ..

चलिए थोड़ी राहत मिली..भाई कुलदीप जी की वापसी पर..
पिटारा खोलती हूँ आज का....


स्विमिंग सीखना अच्छा लगा . और सीखने की तो कोई उम्र नहीं होती .. पानी पर सोकर रेस्ट किया था तभी पहली बार....एक बात तो तय है की सीखने की कोई उम्र नहीं होती ,और सीखी हुई कोई चीज या बात कभी बेकार नहीं जाती। ..

क्या सच में 
जीवन का अन्त नहीं ... 
क्या जीवन निरंतर है ... 
आत्मा के दृष्टिकोण से 
देखो तो शायद हाँ ... 
पर शरीर के माध्यम से देखो तो ... 
पर क्या दोनों का अस्तित्व है 


तुम ही तुम हो....श्वेता सिन्हा
मुस्कुराते हुये ख्वाब है आँखों में
महकते हुये गुलाब है आँखों में

बूँद बूँद उतर रहा है मन आँगन
एक कतरा माहताब  है  आँखों में

मृगया.....रश्मि शर्मा
कलि‍यां चटखती हैं
दि‍वस जैसे मधुमास
मैं मृगनयनी
तुम कस्‍तूरी
जीवन में तुमसे ही 
है सारा सुवास 




''कीर्ति स्तम्भ''...एकलव्य
शक्ति बन !जो तू उड़ेगा
मारुति के रूप में,
पुष्प की वृष्टि करेंगे
बन उपासक,देव भी

दीप्तिमान ब्रह्माण्ड होगा
तेरे 'कीर्ति स्तम्भ' से ....

बात समझने की.....डॉ. सुशील कुमार जोशी

‘उलूक’ 
रोक लेता है 
थूक अपना 
अपने गले के 
बीच में ही कहीं 

सारे मुखौटे 
पीठ के पीछे 
से निकल कर 

गधों के चेहरों
पर वापस 
फिर से चिपके 
हुऐ नजर आते हैं 

आज्ञा दीजिए यशोदा को
कल फिर मिलेंगे
सादर