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शनिवार, 29 अप्रैल 2017

652 ...मुस्कान



सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष



क्या करती हो दिन भर... सुनना अच्छा लगता
खलिहर जब कि कोई अब नहीं कहता


तलवे का तिल
मुझे चादार की घूंघट से झांक कर देखता है,
तुम फिर करवट बदलती हो
वो छिप जाता है  |
जब तुम त्योहारों पर आंगन में बैठी
कुछ गुनगुना कर, पैरों में आलता लगा रही होती होती हो
थोड़े से तलवे उठा कर पीछे की बेड़ियां जोड़ रही होती हो
और मैं वहीं से गुज़र रहा होता हूँ


बैगन का भर्ता
भगवान की मूर्ति पर पड़ी | उसने देखा भगवान ने
आश्चर्य से अपने दांतों तले उंगली दबा ली है |
उसने पूजा घर जूठा कर दिया था |
छोटी बहू को बड़ा गुस्सा आया |
....मुझे खाने का मन था | मुझे कहीं जगह न मिली
तुम्हारे घर आयी तो तुमको भी बुरा लग गया |
गुस्से में उसने अपनी हंडी भगवान के मुंह पर दे मारी |
भगवान के दांत से उनकी उंगली निकल गयी |

मुस्कान
कुछ की नजरों में
मुझे
उम्मीद दिखती है,
कुछ के हाथों में
जिम्मेदारियाँ,

खाली पेट
जिम्मेदारियाँ।

कभी कभार,
मैं उनकी भूख
बाँट लेता हूँ,



मैं एक हारा हुआ जुवारी .
या रिश्तों की भीख का व्यापारी??
याद है मुझे,
जब अचानक मेरी झोली में.
अर्पित हुआ था तुम्हारे प्रेम का दान.
और दक्षिणा में था मिला,
कुछ फेरों का वरदान.



विभा रानी श्रीवास्तव




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