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रविवार, 5 फ़रवरी 2017

569...गाँव का स्टेशन

नमस्कार  दोस्तो  आज फिर मै आपके साथ हाजिर हू आपको पढाने पाँच बेहतरीन लिंक 

तो आज तो वक्त है रविवार जो है तो आराम से पढिए. ....

गाँव का स्टेशन

गाँव के लोग उठ जाते हैं 
मुंह अँधेरे,
पर गाँव का स्टेशन सोया रहता है.
उसे जल्दी नहीं उठने की,
उठ भी जाएगा तो करेगा क्या?
हांफते-हांफते 




बहुत ही मासूम बचपन था !



लू से बेखबर
सबकी नज़रों से बचकर
कच्चे आम
और लीचियों की खटास में
जो मिठास थी
उस स्वाद को भला कौन भूलता है !

ग्लानि

कुछ दिनों से
उससे खिंचा खिंचा सा रहता हूँ
मेरे जवाबों मे तल्खियां रहती है
जानता हूँ सब बेवजह की है
मगर
उसको एक सिरे से खारिज़ करता चला जाता हूँ

फिर वही गुलाबो की महक.. फिर वही माह-ए-फरवरी है...!!!

तेरा यूँ हक़ से
मुझ पर हक़ जताना
मुझ पर तुम्हारे सारे
अधिकार से लगते हैं
कितना अजीब पर प्यारा है
यूँ आँखों से सब कुछ कह देना
और होठो से ना बताना
जैसे आसमां का हक़ धरती पर


विस्मृति एक आदिम जिद है.




सड़क शहरों को जोड़ती नही
शहर को शहर बनाती है.
वो निर्धारित करती है 
हमारे चलने का ढंग,
हमारी गति,
और हमारा गंतव्य भी.
गलियों में चलने वाला मनुष्य ज्यादा स्वायत्त होता है. 



दोस्तो  अब दीजिए आज्ञा 
     विरम सिंह 

6 टिप्‍पणियां:

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