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शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2015

गाढ़ी नींद हो या पूरी बेहोशी....अंक संत्यानब्बे

रोता वही है 

जिसने महसूस किया हो 

सच्चे रिश्ते को..

वरना.... 

मतलब के रिश्तें 

रखने वाले को तो 

कोई भी ....

नही रूला सकता..


ये रही आज की पसंदीदा रचनाओं की कड़ियाँ....



तुम नौकरी में थे
तुम्हारी व्यस्तता छीन लेती थी
मेरे हिस्से का वक्त
देर रात लौटते ही
नींद का खुमार तुम पर छा जाता था


गाढ़ी नींद हो या पूरी बेहोशी ...
अगर प्राणी प्राणडोर से बँधा हो तो
उसके जागने की संभावना बनी रहती है।
प्राण निकल गये हों तो अन्य उसे
मृत हुआ जान लेते हैं।


यहीं कहीं तो था.. अब नज़र नहीं आता,
सिर्फ ठिकाने मिलते हैं, कभी घर नहीं आता ।

कैसे बताऊँ किस मुश्किल से आ पहुंचा हूँ!
मुसाफिर के साथ चलकर सफ़र नहीं आता ।


किसी की परवाह करूँ तो मुसीबत बढ़ सी जाती है
कोई मेरी परवाह करे तो बेचैनियाँ बढ़ सी जाती है
चाहता हूँ जीवन में रहूँ अकेले, कुछ याद किये बगैर      
सोचूं अलग तो कैसे जिन्दगी उदास जो हो जाती है



रामलीला इतना आसान नहीं मेरे भाई
ना ही कोई तमाशा है
जिसे कहीं भी किया जाए
किसी को भी पात्र बना दिया जाए !
त्यौहार मनाना ही चाहते हो
तो रावण का ही एक अंश अपने भीतर जगाओ
सीता की इच्छा का मान रखो


शव का इंतजार नहीं 
शमशान का खुला 
रहना जरूरी होता है
हाँ भाई हाँ 
होने होने की 
बात होती है 

ये रही आज की अंतिम कड़ी....

अदम गोंडवी  
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

किसी श़ायर ने लिखा है...यूँ

हुआ था शोर पिछली रात को दो चाँद निकले है,
बताओ क्या जरूरत थी तुम्हे छत पर टहलने की.

सोमवार को शरद पूर्णिमा है और
उसी दिन इस ब्लाग की 100 वीं प्रस्तुति
भी आएगी..

सोच रही हूँ कि हम पाँचों चर्चाकार एक
सम्मिलित प्रस्तुति दें...


अब इज़जात दें यशोदा को....























5 टिप्‍पणियां:

  1. शुभप्रभात...
    दशहरे के व्यस्तता के चलते भी सुंदर लिंक चयन किया है दीदी आपने...

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर प्रस्तुति । आभार 'उलूक' का सूत्र 'शव का इंतजार नहीं शमशान का खुला रहना जरूरी होता है' को स्थान देने के लिये ।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  4. मुनव्वर राना : बेइज्जती हो गई
    एक शख्स जिसे शायरी में महारत हासिल है अचानक से TV बेहतरीन तरीके से डिबेट करके अपना सम्मान वापस कर देता है इस बिना पर की
    “अगर दंगाइयों पर तेरा बस नहीं चलता
    तो सुनले ऐ हुकूमत हम तुझे नामर्द कहते है “
    जिसके बाद कई लोगों ने उनकी तारीफ की यह भूल कर की यह वही शख्स है जिसने कुछ दिन पहले लेखकों और कवियों को ‘ थके हुए लोग‘ कह कर आलोचना की थी .
    अब अचानक से वही शख्स अपने सुर बदल लेता है उसी हुकूमत के रहनुमाओं के जूते तक उठाने को तैयार हो जाता है संवाद करने को तैयार हो जाता है और काबिल–ऐ-गौर बात यह है की हुकूमत के बुलावे पर अपनी टोली को (साहित्यकारों) छोड़कर चल देता है जो पग पग इनके साथ खड़ी थी
    “मुनव्वर साहब” बड़ी बेइज्जती करा दिए भाई कौम को बेचने का आरोप आज तक नेताओं पर लगता था लेकिन इन्होने तो सारी हदे पार कर दी
    ....
    “कहने को सिर्फ हुकूमतें ही नामर्द नहीं होती साहेब
    .नामर्द है वो भी साथ छोड़ दे जो मंजिल से पहले”
    .
    .स्थान दीजिये हो सके तो

    जवाब देंहटाएं

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