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शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

105...वैसे मै व्रत बहुत कम करती हूँ


सादर अभिवादन
आदरणीय विभी दीदी 

अपरिहार्य कारणो से आज नहीं आ पाई
पर आनन्द आएगा ही

देखिए उन्हीं की पसंद की पहली रचना की कड़ी



देखियेगा शबाब फूलों के
अब उठेंगे नका़ब फूलों के

उम्र-भर बाँटते रहे ख़ुशबू
तुमसे अच्छे हिसाब फूलों के


इक रात लिए मैं...अपने सपनों को
यूँ निकल पड़ा फिर..लेकर अपनों को
वो ख्वाब ही थे जो..मेरे अपने थे
कुछ नए पुराने..जाने अनजाने


आपको विश्वास हो या न हो पर ये बिलकुल सच है ....
ईश्वर से सच्चे मन से मांगो तो मुराद पूरी होती है ,
जब तक उसके हाथ में है.....
(मुझे लगता है ,कई बार उसके हाथ में भी नाही रहता कुछ)
कई बार मुझे महसूस हुआ है की वो मेरी सुनता है .....


मेरा चांद समझता है
मेरे चूड़ी, बिछुए, झुमके
पायल की रुनझुन बोली
सुन लेता है, वह सब
जो मुझे कहना तो था
लेकिन किसीसे ना बोली
पढ़ लेता है मेरी


वैसे मै व्रत बहुत कम करती हूँ 
लेकिन करवाचौथ का व्रत मुझमें इतनी शक्ति भर देता है कि मै पूरा दिन पानी की बूंद भी हलक से उतरने नहीं देती, सब कहते हैं तुम व्रत रोज़े की तरह मत रखा करो, लेकिन शायद बचपन से ही मुझमें वो शक्ति पैदा हो गई है



आज बस
अभी जाकर बात करूँगी विभा दीदी से
उनका हाल-चाल पूछूँगी
सादर
यशोदा










शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2015

104....जीवन का नाम आराम नहीं।

सादर अभिवादन स्वीकारें
रोता वही है 
जिसने महसूस किया हो 
सच्चे रिश्ते को..
वरना...... 
मतलब के रिश्तें 
रखने वाले को 
तो कोई भी 
नही रूला सकता..

देखिए आज की पसंद.....


तुम देखना 
एक समतल भूमि होगी
कहीं दूर अवश्य...
उबड़-खाबड़ राहों से गुज़र कर
हम जिस तक पहुंचेंगे... !


दो जिंदगियों के बीच 
ऐसा कौनसा गठजोड़ है जो ताउम्र उन्हें एक रखता है। अरसा पहले यही सोच थी कि कहीं भी चले जाओ पति-पत्नी अक्सर जूझते हुए ही नजर आते हैं। जोधपुर में पैंतीस साल के दाम्पत्य के बावजूद उम्रदराज जोड़े को लड़ते-झगड़ते देखना हैरत में डाल देता था।


कान तरसते रह गये, बादरवा का शोर 
ना बरखा ना बीजुरी, कैसे नाचे मोर ! 
शीतल जल के परस बिन, मुरझाए सब फूल 
कोयल बैठी अनमनी, गयी कुहुकना भूल ! 



पहले मेरे पास नोकिया था छोटे स्क्रीन वाला .... 
व्हाट्सएप की जरूरत नही थी ...ब्लॉग और फेसबुक ,
यूट्यूब सब ...घर पर डेस्कटॉप पर वापर लेती थी ...
इस बीच टैब भी ले लिया .....अब सब कुछ गतिमान हो गया था 
मगर मैंने बड़े आकार का होने के कारण 
फोन का इस्तेमाल न होने वाला लिया था .


‘रे पथिक! ये क्षण विश्राम का नहीं,
जीवन का नाम आराम नहीं।
सचेत हर पल रहना तुझे,
आघात-संघर्षों के अनवरत सहना है तुझे।
अवरूद्ध पथ के कण्टक
अपने ही हाथों बीनने हैं, तुझे।


मुक्तक और रुबाइयाँ
गंध  मैने पिया, मदहोश  कोई और हुआ 
आंख  मेरी झंपी, खामोश  कोई और हुआ 
वाह  री पाक  मुहब्बत  असर  तुम्हारा है 
चोट मुझको लगी, बेहोश कोई और हुआ। 


क़द्र उसकी क्यों करें हम जिंदगी से जो है हारा ।
चल रहे है ठोकरों पर आज हम भी बेसहारा ।।
हारने का ये तो मतलब हैं नही क़ि टूट जाओ ।
टूटने के दर्द का तुम कुछ करो एहसास प्यारा ।



दिल की बातें तो आखों से होती हैं,
अल्फाजों से तो अक्सर झगड़ा होता है..
आज्ञा दें यशोदा को
फिर मिलते ही रहेंगे.....



इसे देखिए....पर हँसना मना है















गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

माँ एक शब्द छिपा है जिसमे अनोखा संसार ....अंक 103

आप सभी को संजय भास्कर का नमस्कार
आज मन बहुत ही भारी हो रहा था माँ की याद जो आ रही थी इसीलिए आज सिर्फ माँ को समर्पित माँ की यादों से भरी रचनाये ..........!!

माँ तेरे यादों की हर चीज 

समेट कर रख दी है 

सहेज कर 

मन में 

जो कभी पानी 

तो कभी 

बादल बन 

बरस जाती हैं 

मन में ही 

मन का पंछी...........शिवनाथ कुमार


माँ तो माँ है  :))

मैंने देखा तुम मुस्कुरा रही हो 

देख रही हो हर वो रस्म 

जो तुम्हारी सांसों के

 जाने के साथ ही शुरू हो गयी थी 

स्वप्न मेरे ............. दिगंबर नासवा 


मेरी प्यारी माँ 

तुम्हारे बारे में क्या लिखू 

तुम मेरा सर्वत्र हो 

मेरी दुनिया हो 

तुम्हारे लिए हर पंक्ति छोटी है !

शब्दों की मुस्कुराहट......संजय भास्कर 


माँ ,एक शब्द :))

माँ ,

एक शब्द ,

छिपा है जिसमे ,

एक अनोखा संसार !

माँ ...............  सोनल पंवार



नन्हे मचल रहे हाथों और पैरों के आघात सहे...
हाथों के झूले मे मुझको अपने तू दिन रात लिए...
मूक शब्द तब इन नैनों के तू ही एक समझती थी...
रुदन कभी जो मेरा सुनती तू अकुलाई फिरती थी...



इसी के साथ आप सभी से इज़ाज़त चाहता हूँ

-- संजय भास्कर

बुधवार, 28 अक्टूबर 2015

चंदन है भारत की माटी ,तपोभूमि हर ग्राम है----अंक 102


जय मां हाटेशवरी...

ज़र्द पत्तों की तरह 
सारी ख्वाहिशें झर गयी हैं
नव पल्लव के लिए
दरख़्त बूढ़ा हो गया है
टहनियां भी अब
लगी हैं चरमराने
मंद समीर भी
तेज़ झोंका हो गया है
कभी मिलती थी
छाया इस शज़र से
आज ये अपने से
पत्र विहीन हो गया है
अब कोई पथिक भी
नहीं चाहता आसरा
अब ये वृक्ष खुद में
ग़मगीन  हो गया है
ये कहानी कोई
मेरी तेरी नहीं है
उम्र के इस पड़ाव पर
हर एक का यही
हश्र हो गया है ।------------------संगीता स्वरुप ( गीत )

अब चलते हैं...आज की हलचल की ओर...
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क्या अभयदान के जैसा जीवनदान होगा
हम दोनों का
पीड़ा की अनेक गाथाएं रची जा रही हैं
मेघों की पहली बूंद से फूटती तुम
दर्द की कविता सी फलती मैं
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रावजी ने अपने बारह पुत्रो को बुलाया  और  कहा, -" मेरा अन्त समय  तो अब निकट है पर मेरा जीव अटक रहा है  मै तुम सबसे  एक  वचन  लेना चाहता  हूँ।"
बेटो ने सोचा कि अपने अन्तिम  समय मे इस धोखे  का रावल जगमालजी  से बदला लेने के  अलावा और क्या  वचन मांगेंगे ।
रावजी के  पुत्रो ने कहा, -" आप अपने  प्राणो को मुक्त  करो ,  हम इस मृत्यु  का  बदला लेने  की  सौगंध  लेते है ।" रावजी ने कहा ,-" पहले तुम  सब मुझे  वचन
दो तब मै मेरे मन की बात कहूँ।"
पुत्रो से वचन लेकर  रावजी ने आज्ञा दी - 'मल्लीनाथजी  की औलाद  से तुम  लोग  मेरा वैर नही लोगे,  यही मेरी अन्तिम  इच्छा  है ।तुम  लोगो  पर मुसलमानो के  कितने
 वैर है,  आपस मे  लडने पर मेरा वंश उजड़ता है ,  मेरी यही तुम  लोगो को  भोळावण है ।'
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जब सुमंत राम को वन में छोड़कर चल देते हैं वह एक बार अयोध्या को मुड़कर देखते हैं और एक मुठ्ठी मिट्टी अयोध्या की उठा लेते हैं ,ताकि ये उन्हें अभिमान न हो मैंने
सब कुछ  त्याग दिया। और फिर मेरे पास पूजा करने के लिए कोई मूर्ती भी तो नहीं है। भगवान की मैं सुबह उठकर रोज़ पूजा करता हूँ। और यही वह मिट्टी है जिसमें इक्ष्वाकु
वंश की परम्परा समाहित है। प्रतापी राजाओं की स्मृति लिए है ये मिट्टी।
चंदन है भारत की माटी ,तपोभूमि हर ग्राम है ,
हर बालक देवी की प्रतिमा ,बच्चा बच्चा राम है।
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शोक है
मनी नहीं खुशियाँ
गाँव में इस बार
दशहरा पर
असमय गर्भ पात हुआ है
गिरा है गर्भ
धान्य का धरा पर
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सारी किताबें चौबीस हज़ार में खरीदी हैं। अब हाफ में भी न बेचें तो कैसे काम चलेगा। शायद हिन्दी के उपरोक्त लेखक द्वारा प्रयुक्त की गयी यह युक्ति, इस रूप में
'पुस्तकों का लोकतंत्रिकीकरण' है के हमने अपने यहाँ से किताबें निकाल दीं हैं, अब खुले बाज़ार में उन्हें कोई भी खरीद सकता है।
हो सकता है, वह पुलिहा से किताबें फेंककर पानी की गहराई नाप रहे हों। तैरने से पहले नापना, बुद्धिमानी का लक्षण है।

मिलते रहेंगे...
धन्यवाद...

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

101.....तेरे और मेरे मध्य कौन सी थी रुकावट

सादर अभिवादन स्वीकारें
हमारे सहभागी कहते है
प्रतिक्रियाएँ दिखाई नहीं पड़ती

प्रत्यक्ष अनुभव भी मिला मुझे
2014 मे लिखा एक ब्लाग..

रचना पसंद आई..लिंक लिया
सूचना देने गई तो देखा
एक भी प्रतिक्रिया नहीं.....

पहली प्रतिक्रिया मेरे नाम दर्ज हुई... 
आज-कल की दुनिया मोबाईल में
समाई हुई है...

चलिए चलें आज की पसंदीदा रचनाओॆ की ओर.... 


नियति-चक्र
नही सुनती  
करबद्ध विनती,  
ज़िद्दी नियति !
लम्हों का सफ़र में... डॉ. जेन्नी शबनम  



पहला प्रेम
जिंदगी की पहली फुलपैंट जैसा
पापा की पुरानी पेंट को
करवा कर ऑल्टर पहना था पहली बार !
फीलिंग आई थी युवा वाली
तभी तो, धड़का था दिल पहली बार !

जिन्दगी की राहें में... मुकेश कुमार सिन्हा


शरद का चाँद बनकर ----
कुछ कागज में लिखी स्मृतियाँ
कुछ में सपने
कुछ में दर्द
कुछ में लिखा चाँद 

उम्मीद तो हरी है में...ज्योति खरे


तेरे और मेरे मध्य कौन सी थी रुकावट
दिन-रात जब आती थी तेरे कदमों की आहट
तब राह रोक खड़ी हो जाती थी मेरी ही घबराहट !
कहाँ तुझे बिठाना है, क्या-क्या दिखलाना है 

मन पाए विश्राम जहाँ में.....अनीता


किताबों की दुनिया
जब तुझे याद किया रंग बदन का निखरा
जब तिरा नाम लिया कोई महक सी बिखरी

शाख-ए -मिज़गां पे तिरी याद के जुगनू चमके
दामन-ए-दिल पे तिरे लब की महक सी बिखरी 

किताबों की दुनिया में ...नीरज गोस्वामी


उम्र भर हादिसों से गुज़रते रहे
इसलिए दूर हम आप सब से रहे

मछलियाँ हो गयीं अब सयानी बहुत
सब फिसलती रहीं हम पकड़ते रहे
अन्दाजे ग़ाफ़िल में चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ 


जानते हो ना तुम 
करने को बेबस का भला 
काटा जाता है बेबस का ही गला 
भूले से जब कभी जीत जाता है 
जो कोई बेबस 
तो समझो दूसरी ओर 
कोई बेबस ही हार कर 
सिसक रहा होगा। 
काव्य युग में...आशा ओझा पाण्डेय


इज़ाज़त दें यशोदा को
फिर मिलेंगे और मिलते रहेंगे







 


 



 




 

सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

सौवाँ अंक....खुली हुई छत पर पसरी हुई है चांदनी





आज चन्द्रमा 
अपनी पूरी सोलह कलाओं के साथ
आकाश को प्रकाशित करेगा
शरद पूर्णिमा की रात है
आकाश से अमृत की वर्षा होगी

और..एक विशेष बात...
वो ये है कि यह प्रस्तुति
पाँच लिंको का आनन्द की
सौवीं प्रस्तुति है....
और सोने में सोहागा
आज की प्रस्तुति में
हम पाँचों चर्चाकारों की सहभागिता है..
सर्व प्रथम प्रस्तुत है

भाई श्री कुलदीप ठाकुर की पसंदीदा रचनाओॆ की कड़ी...

मुझसे चाँद कहा करता है--
तू तो है लघु मानव केवल,
पृथ्वी-तल का वासी निर्बल,
तारों का असमर्थ अश्रु भी नभ से नित्य बहा करता है।
मुझ से चाँद कहा करता है--
- महामना हरिवंश राय बच्चन

शीतल चांदनी अंग जलाये
दाह से वो जल जाता होगा
याद उसे जब वो लम्हे आये
लाज से वो शरमाता होगा ...
प्रकाशन कर्ताः वाणी गीत

हम दोनों की पसंदीदा रचनाओं की कड़ी...

सम्पूर्ण कलाओं से परिपूरित,
आज कलानिधि दिखे गगन में
शीतल, शुभ्र ज्योत्स्ना फ़ैली,
अम्बर और अवनि आँगन में
रचयिताः श्रीप्रकाश शुक्ल

शरद की 
बादामी रात में 
नितांत अकेली 
मैं 
चांद देखा करती हूं 
तुम्हारी 
जरूरत कहां रह जाती है, 
रचनाकारः स्मृति आदित्य

सहरा सहरा भटक रहा है 
अपने इश्क़ में सच्चा चांद
रात के शायद एक बजे हैं 
सोता होगा मेरा चांद...
श़ायरः परवीन शाकिर
प्रस्तुतिः प्रतिभा कटियार

कल पिघल‍ती चांदनी में 
देखकर अकेली मुझको 
तुम्हारा प्यार
चलकर मेरे पास आया था 
चांद बहुत खिल गया था।
रचयिताः फाल्गुनी
प्रस्तुतिः मेरी धरोहर

विभा दीदी का चयन...

परिन्दो को कभी क्या , माँ ने उड़ना सिखाया था ,
उन्हे तो बस किसी शाख से गिरकर बताया था ।
तुम्ह भी चुप चाप चले आये हो महफ़िल से ,
तुम्हे भी क्या उसी ने जाम पिलाया था ।
कवियत्रीः हेम ज्योत्सना 'दीप'


कुँद की कली सी दँत पाँति कौमुदी सी दीसी ,
बिच बिच मीसी रेख अमीसी गरकि जात ।
बीरी त्योँ रची सी बिरची सी लखै तिरछी सी ,
रीसी अँखियाँ वै सफरी सी त्योँ फरकि जात ।
रचयिताः अज्ञात
प्रस्तुतिः शहरयार 'शहरी'


चांदनी हो मुबारक सभी को चाँद आया है रस बरसाने 
लेके अंगडाई अरमान जागे, फ़िर हरे हो गए हैं फ़साने

वक्त के घोल में तल्खियों को ,यूँ खंगाला बहुत वक्त मैंने 
दाग दिल के मगर सख्त निकले ,आगये चांदनी में रुलाने
ब्लागः सर्जना से

खुली हुई छत पर पसरी हुई है चांदनी 
तो आओ,
इस दूधिया रोशनी में लिखें 
चांदनी बचाने की कविता
पसरे हुए हरसिंगार की खुशबू से 
मह-मह करते आँगन की कविता
ब्लागः सहयात्री से

आदरणीय संजय भास्कर जी का चयन

चंदा की छाँव तले
तारों की बारात चली
ओढ़ के रुपहली चूनर
टिमटिमाती रात चली।
झरोखा में....पूनम श्रीवास्तव


कितनी खामोश चांदनी हैं रात की ,
वो  जानती हैं , कोई, 
सवाल इससे कहीं कर रहा होगा,
वो जो बैठा  होगा , नजरो को उठाये  हुए ,
तूफ़ान दिल में समाये हुए |
पहचान में..अंजली माहिल

खोये-खोये से चांद पर,
जब बारिश की बूंदे बैठती,
और बादल की परत,
घूंघट में हो, उसे घेरती,
तब फिसल कर गाल पर,
एक तब्बसुम खिलने लगे,
मेरा सागर में प्रीती बङथ्वाल “तारिका”

शरद की दूधिया चांदनी
और उसमें नहाये से तुम
नीम की फुनगी पे चांद 
और मेरे कितने पास तुम
दिल में जज्बातों की हलचल
बिलकुल अनजान उससे तुम
स्वप्न रंजिता में...आशा जोगलेकर

आज मैं आल्हादित हूँ..प्रयास सफल हुआ
सहयोगियो को आभार..
उपलब्धियाँ भी कुछ कम नही मिली
काफी से अधिक ही है... संतुष्ट हूँ
दिन विशेष में सौवी प्रस्तुति
रचनाओं की कड़ियाँ प्रासंगिक हैं
और संग्रहणीय भी है

और अंत में ऋता बहन रचित कुछ हाईकू
जिसे आज तक किसी ने नहीं पढ़ा


अमृत -वर्षा
चाँदनी की किरणें
धरा पर करें।



कल एक घटना होगी और परसों
कोई किसी से कह रहा होगा यूँ


हुआ था शोर पिछली रात को दो चाँद निकले है,
बताओ क्या जरूरत थी तुम्हें छत पर टहलने की.

आज्ञा दें यशोदा को


आजा सनम मधुर चाँदनी में हम






रविवार, 25 अक्टूबर 2015

क्रूर हो क्यों, चाँदनी?-------अंक 99


जय मां हाटेशवरी...

आज इतनी दूर हो क्यों, चाँदनी?
रूप से भरपूर हो पर क्रूर हो क्यों, चाँदनी?
वह तुम्हारा देश, शशि, वह है न क्या रवि का मुकुर ही?
शशि-सदृश आतुर, मुकुर जग का न क्या कविसुलभ उर भी?
सुलगता शीतल अनल से, शून्य के शशि-सा विधुर भी!
इसलिये आओ हृदय में, दूर हो क्यों, चाँदनी?
रूप से भरपूर हो, पर क्रूर हो क्यों, चाँदनी?

मैं नहीं शशि, दूर है शशि, व्यर्थ मन को शशि बताता!
कहाँ मैं वंचित सुधा से, कहाँ वह शशि--घर सुधा का!
धरा पर पड़ते न उसके पाँव--शशि? मैं भूलता था!
तुम धरा पर उतर कर भी दूर हो क्यों, चाँदनी?
रूप से भरपूर हो, पर क्रूर हो क्यों, चाँदनी?

सुधा मुझसे दूर है, हे चाँदनी, पर मन मधुर है;
शशि नहीं हूँ, किन्तु फिर भी हृदय मेरा भी मुकुर है,
मुकुर भी ऐसा कि अतिशय चूर्ण--यह कविसुलभ उर है!
झाँक देखो रूप रंजित, दूर हो क्यों, चाँदनी?
रूप से भरपूर हो, पर क्रूर हो क्यों, चाँदनी?

तुम महीने में कभी दिन चार को आतीं, न सब दिन;
रहीं रातों दूर औ रीते रहे मेरे तृषित छिन,
मैं यहाँ बेबस खड़ा इन सींखचों को हूँ रहा गिन!
पास तो आओ, बताओ दूर हो क्यों, चाँदनी?
रूप से भरपूर हो, पर क्रूर हो क्यों, चाँदनी?

चाँदनी! सुन लो तुम्हीं सी है हमारी चाँदनी भी!
दूर भी है, सुन्दरी भी, क्रूर है वह चाँदनी भी!
तुम हृदय में पैठ पाओ तो दिखाऊँ चाँदनी भी!
पास है वह दूर से भी, दूर हो क्यों, चाँदनी?
रूप से भरपूर हो, पर क्रूर हो क्यों, चाँदनी?----------------------------------------नरेन्द्र शर्मा

अब चलते हैं...आज की हलचल की ओर...

और तभी होती है आकाशवाणी
बस और नहीं
तुम्हे फिर से लेना होगा जन्म
तब रूह हस कर
किसी शाख पर
ले लेती है फांसी
खो जाती है ब्लैक होल में
सुना है कब्र के ऊपर
जो पेड़ है वो पलाश है
स्वेच्छा से उगता है पलाश
प्रेम , प्रेम भी स्वेच्छा से ही किया जाता है


जिन्होंने पाकिस्तान माँगा उन्हें दिया गया और वोह चले गए, जिन्हें देश से मुहब्बत थी उन्होंने ना माँगा और ना ही मांगने वालों का साथ दिया...
इस मौज़ूं पर राहत इंदौरी साहब ने क्या खूब लिखा है
सभी का ख़ून है शामिल यहां कि मिट्टी में,
किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है


बुढ़ापे ने छिनी उनकी रवानी
बच्चे अब नहीं उनको चाहते
बोझ जैसा अब उन्हें मानते
रोज गरियाते झिझकाते है
बूढ़े माँ पिता को सताते है
एक समय की बात ख़त्म हुई
दूजे समय ने की मनमानी।



दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब जापानी सेना ने सिंगापुर में ब्रिटिश सेना पर हमला किया तो लक्ष्मी सहगल सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हो गईं
थीं।
वे बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित हो गई थीं और जब महात्मा गाँधी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो लक्ष्मी सहगल ने उसमे हिस्सा
लिया। वे 1943 में अस्थायी आज़ाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं। एक डॉक्टर की हैसियत से वे सिंगापुर गईं थीं लेकिन 87 वर्ष की उम्र में वे



अपने चतुर्दिक फैली शक्तियों के माध्यम से
मैं अपनी क्षमतावर्द्धन के मार्ग ढूंढ लेता हूँ।
और खड़ा हो जाता हूँ-
विश्व संरचना की पंक्ति में
चकित, विस्मित, पुलकित

कल   शरद पूर्णिमा है...
 और कल  इस ब्लाग की 100 वीं प्रस्तुति हैं...
कल की हलचल में हम पाँचों चर्चाकार एक
सम्मिलित प्रस्तुति देंगे...
पर आप के बिना हलचल में आनंद नहीं आयेगा...
आप सब की प्रतीक्षा रहेगी...

धन्यवाद...

शनिवार, 24 अक्टूबर 2015

मुहर्रम




सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

दो दिन बाद हम सेंचुरी पूरा करेंगे
आज 98 पोस्ट हो गये इस ब्लॉग पर


हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,
वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,
पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।








पूरे मुहल्ले में भरी पड़ी थीं लड़कियां
जैसे किताबों में भरे रहते हैं शब्द
निश्शब्द, मगर वाचाल
सब साथ मिल कर हंसतीं
तो पोखर में तरंगें उठने लगतीं
सब साथ मिल कर गातीं
तो लगता
आ गया मुहर्रम का महीना
या किसी की शादी का दिन

इस तरह खत्म होते हैं लोग


मुहर्रम इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्योहार है। इस माह की उनके लिए बहुत विशेषता और महत्ता है। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार मुहर्रम हिजरी संवत का प्रथम मास है। पैगंबर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन एवं उनके साथियों की शहादत की याद में मुहर्रम मनाया जाता है। 

मुहर्रम एक महीना है जिसमें दस दिन इमाम हुसैन के शोक में मनाए जाते हैं। इसी महीने में मुसलमानों के आदरणीय पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब, मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत किया था

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

कृष्ण के प्रेम में दीवानी मीरा जहाँ विषपान तक कर लेती है वहीँ भक्त रसखान अपने कृष्ण के ग्वालसखा बनकर गोकुल में ही बसने की इच्छा अगले जन्म के लिए भी रखते हैं :-
              "मानुष हौं तो वही रसखान बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन |"

"मोती झरना" का एक पुराना दृश्य


खनन खुमारी मे जने कब् तुमने
काट दी मेरी चोटी, कब् रेत दी मेरी नलेटी,
अभी भी वक़्त शेष है, उठो जागो ए पाषाण-हृदयी इंसानों
पर्वत और जीवन के चिरकालिक प्रणय को पहचानो,
सभ्यता हमेशा मेरी उँगलियाँ पकड़
समय की पगडंडियों पे चलती रही है,
पर तुम्हारी ये पीढ़ी सफलता की सीढ़ी
चढ़ने की होड मे विनाश के राह चल पडी है




देश बलिदान मांग रहा


चारो ओर हाहाकार मचा है
जुल्म के खिलाफ बोलना एक सजा है
न्याय मिले हर किसी को
ऐसा संविधान मांग रहा है


हूँ कारगिल का बलिदान सुनो

 झंडे का मान सुनो ,,, मैं गोबर लिपा गलियारा हूँ ,,, हूँ कच्चा जुडा मकान सुनो ,, दिन की घनी दुपहरी हूँ ,,, मैं खेत में जुता किसान सुनो,, मैं हल के मुठ्ठे की छोटे हूँ ,,, हूँ बैलो के बंधान सुनो ,,, मैं जौ बाजरे की रोटी हूँ ,, हूँ फुलवारी धान सुनो ,,, मैं आज चाहता हूँ देना परिचय,, हूँ भारत माँ का सम्मान सुनो,,


फिर मिलेंगे

तब तक के लिए

आखरी सलाम


विभा रानी श्रीवास्तव








शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2015

गाढ़ी नींद हो या पूरी बेहोशी....अंक संत्यानब्बे

रोता वही है 

जिसने महसूस किया हो 

सच्चे रिश्ते को..

वरना.... 

मतलब के रिश्तें 

रखने वाले को तो 

कोई भी ....

नही रूला सकता..


ये रही आज की पसंदीदा रचनाओं की कड़ियाँ....



तुम नौकरी में थे
तुम्हारी व्यस्तता छीन लेती थी
मेरे हिस्से का वक्त
देर रात लौटते ही
नींद का खुमार तुम पर छा जाता था


गाढ़ी नींद हो या पूरी बेहोशी ...
अगर प्राणी प्राणडोर से बँधा हो तो
उसके जागने की संभावना बनी रहती है।
प्राण निकल गये हों तो अन्य उसे
मृत हुआ जान लेते हैं।


यहीं कहीं तो था.. अब नज़र नहीं आता,
सिर्फ ठिकाने मिलते हैं, कभी घर नहीं आता ।

कैसे बताऊँ किस मुश्किल से आ पहुंचा हूँ!
मुसाफिर के साथ चलकर सफ़र नहीं आता ।


किसी की परवाह करूँ तो मुसीबत बढ़ सी जाती है
कोई मेरी परवाह करे तो बेचैनियाँ बढ़ सी जाती है
चाहता हूँ जीवन में रहूँ अकेले, कुछ याद किये बगैर      
सोचूं अलग तो कैसे जिन्दगी उदास जो हो जाती है



रामलीला इतना आसान नहीं मेरे भाई
ना ही कोई तमाशा है
जिसे कहीं भी किया जाए
किसी को भी पात्र बना दिया जाए !
त्यौहार मनाना ही चाहते हो
तो रावण का ही एक अंश अपने भीतर जगाओ
सीता की इच्छा का मान रखो


शव का इंतजार नहीं 
शमशान का खुला 
रहना जरूरी होता है
हाँ भाई हाँ 
होने होने की 
बात होती है 

ये रही आज की अंतिम कड़ी....

अदम गोंडवी  
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

किसी श़ायर ने लिखा है...यूँ

हुआ था शोर पिछली रात को दो चाँद निकले है,
बताओ क्या जरूरत थी तुम्हे छत पर टहलने की.

सोमवार को शरद पूर्णिमा है और
उसी दिन इस ब्लाग की 100 वीं प्रस्तुति
भी आएगी..

सोच रही हूँ कि हम पाँचों चर्चाकार एक
सम्मिलित प्रस्तुति दें...


अब इज़जात दें यशोदा को....























गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

विजय पर्व पर कीजिए पापों का संहार ........अंक 96

आप सभी को संजय भास्कर का नमस्कार
विजयादशमी के पवन पर्व पर ब्लॉग पर मेरी दूसरी प्रस्तुति है उम्मीद है सभी को पसंद आये.....!!


सीधे सरल शब्दों में, मैंने दिल की बात कही है  :))
सीधे सरल शब्दों में,                              
मैंने दिल की बात कही है....
सीधे सरल तरीके से,
तुम्हारे दिल तक पहुच गयी है....
'आहुति'..................... सुषमा वर्मा 

तेरे हिस्से का वक्त :)
तुमने देखा ही होगा
अचानक
नीरव गगन में बिजली का कौंधना,
चौंधिया जाती है जिससे निगाहें अक्सर
बेचैनियों का गुलदस्ता ................. अंकुर जैन 

मेरे चेहरे पे मत जाना :))
देखो..मेरे चेहरे पे मत जाना
कभी-कभी रंगकर्मी की तरह
बदल लेती हूँ भाव अपने चेहरे के
सीख रही हूँ न..
जीवन जीने की कला
दुनिया भी तो ऐसी ही है न
शक्ल देखकर..मन पढ़ लेती है
कुछ ख़याल मेरे..................... पारुल चंद्रा 


विजय पर्व पर कीजिए, पापों का संहार :))
जगत जननी जगदम्बिका, सर्वशक्ति स्वरूप।
दयामयी दुःखनाशिनी, नव दुर्गा नौ रूप।। 
शक्ति पर्व नवरात्र में, शुभता का संचार।
भक्तिपूर्ण माहौल से, होते शुद्ध विचार ।। 
जयकारे से गूंजता, देवी का दरबार।

पर वो गरीब आज भी गरीब है :))
दिख जाते हैं 
अक्सर कई फ़कीर 
गंदे मैले कुचैले से 
कपड़े पहने 
राहों पर 
कोई गरीब कचड़ा बीनता 
कोई मासूम भीख मांगता 
गाड़ियों में 


इसी के साथ आप सभी से इज़ाज़त चाहता हूँ
आप सभी मित्रों को दुर्गा पूजा, विजयादशमी और दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएँ :))


-- संजय भास्कर


बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

‘राम देश की एकता के प्रतीक हैं’-अंक 95 कह रहा है...

जय मां हाटेशवरी...

अपने शील और पराक्रम के कारण भारतीय समाज में श्री राम को   जैसी लोकपूजा मिली
वैसी संसार के अन्य किसी धार्मिक या सामाजिक जननेता को शायद ही मिली हो। भारतीय समाज में उन्होंने जीवन का जो आदर्श रखा, स्नेह और सेवा के जिस पथ का अनुगमन
किया, उसका महत्व आज भी समूचे भारत में अक्षुण्ण बना हुआ है। वे भारतीय जीवन दर्शन और भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रतीक थे। भारत के कोटि कोटि नर नारी आज भी
उनके उच्चादर्शों से अनुप्राणित होकर संकट और असमंजस की स्थितियों में धैर्य एवं विश्वास के साथ आगे बढ़ते हुए कर्त्तव्यपालन का प्रयत्न करते हैं। उनके त्यागमय,
सत्यनिष्ठ जीवन से भारत ही नहीं, विदेशों के भी
मैक्समूलर, जोन्स, कीथ, ग्रिफिथ, बरान्निकोव आदि विद्वान आकर्षित हुए हैं। उनके चरित्र से मानवता मात्र गौरवान्वित हुई है।
आदिकवि ने उनके संबंध में लिखा है कि "वे गाम्भीर्य में उदधि के समान और धैर्य में हिमालय के समान हैं। राम के चरित्र में पग-पग पर मर्यादा, त्याग, प्रेम और
लोकव्यवहार के दर्शन होते हैं। राम ने साक्षात परमात्मा होकर भी मानव जाति को मानवता का संदेश दिया। उनका पवित्र चरित्र लोकतंत्र का प्रहरी, उत्प्रेरक और निर्माता
भी है। इसीलिए तो भगवान राम के आदर्शों का जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव है और युगों-युगों तक रहेगा।"
‘राम प्रतीक हैं- साधारण जन; मानवीय स्वतंत्रता-स्वायत्तता; लोक-तांत्रिक मूल्यवत्ता एंव सामूहिकता को समर्पित व्यक्तित्व के’ कवि नरेश मेहता
‘कहते हैं जो जपता है राम का नाम राम जपते हैं उसका नाम’–शतायु
‘राम देश की एकता के प्रतीक हैं’- डॉ राममनोहर लोहिया
‘भगवान राम एक आदर्श सुपुत्र, आदर्श भाई, आदर्श सखा, आदर्श पति और आदर्श राष्ट्रभक्त हैं’-आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी
राम तो अगम हैं और संसार के कण-कण में विराजते हैं। राम को शास्त्र-प्रतिपादित अवतारी, सगुण, वर्चस्वशील वर्णाश्रम व्यवस्था के संरक्षक राम से अलग करने के लिए
ही ‘निर्गुण राम’ शब्द का प्रयोग किया–‘निर्गुण राम जपहु रे भाई- कबीर
जनतंत्र में सत्ता के प्रति उच्च स्तर की निरासक्ति आवश्यक है। भगवान राम की तरह, जनतंत्र में राजनीतिज्ञ को, आह्वान मिलने पर सत्ता स्वीकार करने और क्षति की
चिंता किए बिना उसका परित्याग कर देने के लिए भी सदा तैयार रहना चाहिए- पं. दीनदयाल उपाध्याय
भगवान राम  मानवमात्र बल आदर्श हैं, रामायण लोकतंत्र का आदि शाम है- सावरकर
डॉ. लोहिया कहते हैं “जब कभी महात्मा गांधी ने किसी का नाम लिया तो राम का ही क्यों लिया? कृष्ण और शिव का भी ले सकते थे। दरअसल राम देश की एकता के प्रतीक हैं।
गांधी राम के जरिए  हिन्दुस्तान के सामने एक मर्यादित तस्वीर रखते थे।” वे उस राम राज्य के हिमायती थे। जहां लोकहित सर्वोपरि था।
पर आज राम के अनुपम नाम को कुछ तथाकथित देशभगतों ने चंद  संगठनों या पार्टियों तक ही सीमित कर दिया है...
जो श्रीराम के बिना ही  देश में  राष्ट्रीय एकता स्थापित करना चाहते हैं...श्री राम भारत का चरित्र है...भारत की आत्मा है...राष्ट्रीय एकता राम के बिना असंभव है...
मेरा संबंध न किसी संघठन से और  न ही  किसी पार्टी से है...
पर मुझे गर्व है कि मेरा जन्म एक  महान देश, सब से प्राचीन धर्म तथा  उच्च कुल में हुआ है जिसमे श्री राम जैसे उच्च चरित्र की पूजा होती है...
आज की हलचल का आरंभ...महा कवि तुलसी दास द्वारा रचित 108 पंक्तियो की   श्री राम जीवन सार से...
रघुपति राघव राजाराम। पतित पावन सीताराम॥
जय रघुनन्दन जय घनश्याम। पतित पावन सीताराम॥
भीड़ पड़ी जब भक्त पुकारे। दूर करो प्रभु दु:ख हमारे॥
दशरथ के घर जन्में राम। पतित पावन सीताराम॥१॥
विश्वामित्र मुनीश्वर आए। दशरथ भूप से वचन सुनाये।
संग में भेजे लक्ष्मण राम। पतित पावन सीताराम॥२॥
वन में जाय ताड़का मारी। चरण छुआय अहिल्या तारी॥
ऋषियों के दु:ख हरते राम। पतित पावन सीताराम॥३॥
जनकपुरी रघुनन्दन आए। नगर निवासी दर्शन पाए॥
सीता के मन भाये राम। पतित पावन सीताराम॥४॥
रघुनन्दन ने धनुष चढाया। सब राजों का मान घटाया॥
सीता ने वर पाये राम। पतित पावन सीताराम॥५॥
परशुराम क्रोधित हो आए। दुष्ट भूप मन में हरषाये॥
जनकराय ने किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥६॥
बोले लखन सुनो मुनि ज्ञानी। संत नहीं होते अभिमानी॥
मीठी वाणी बोले राम। पतित पावन सीताराम॥७॥
लक्ष्मण वचन ध्यान मत दीजो। जो कुछ दण्ड दास को दीजो॥
धनुष तुडइय्या मैं हूँ राम। पतित पावन सीताराम॥८॥
लेकर के यह धनुष चढाओ। अपनी शक्ति मुझे दिखाओ॥
छूवत चाप चढाये राम। पतित पावन सीताराम॥९॥
हुई उर्मिला लखन की नारी। श्रुतिकीर्ति रिपुसूदन प्यारी॥
हुई मांडवी भरत के वाम। पतित पावन सीताराम॥१०॥
अवधपुरी रघुनन्दन आए। घर-घर नारी मंगल गए॥
बारह वर्ष बिताये राम। पतित पावन सीताराम॥११॥
गुरु वशिष्ठ से आज्ञा लीनी। राजतिलक तैयारी कीनी॥
कल को होंगे राजा राम। पतित पावन सीताराम॥१२॥
कुटिल मंथरा ने बहकायी। केकैई ने यह बात सुनाई॥
दे दो मेरे दो वरदान। पतित पावन सीताराम॥१३॥
मेरी विनती तुम सुन लीजो। पुत्र भरत को गद्दी दीजो॥
होत प्रात: वन भेजो राम। पतित पावन सीताराम॥१४॥
धरनी गिरे भूप तत्काल। लागा दिल में शूल विशाल॥
तब सुमंत बुलवाये राम। पतित पावन सीताराम॥१५॥
राम, पिता को शीश नवाये। मुख से वचन कहा नहिं जाये॥
केकैयी वचन सुनायो राम। पतित पावन सीताराम॥१६॥
राजा के तुम प्राण प्यारे। इनके दुःख हरोगे सारे॥
अब तुम वन में जाओ राम। पतित पावन सीताराम॥१७॥
वन में चौदह वर्ष बिताओ। रघुकुल रीति नीति अपनाओ॥
आगे इच्छा तुम्हारी राम। पतित पावन सीताराम॥१८॥
सुनत वचन राघव हर्षाये। माता जी के मन्दिर आए॥
चरण-कमल में किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥१९॥
माता जी मैं तो वन जाऊँ। चौदह वर्ष बाद फिर आऊं॥
चरण कमल देखूं सुख धाम। पतित पावन सीताराम॥२०॥
सुनी शूल सम जब यह बानी। भू पर गिरी कौशल्या रानी।
धीरज बंधा रहे श्री राम। पतित पावन सीताराम॥२१॥
समाचार सुनी लक्ष्मण आए। धनुष-बाण संग परम सुहाए॥
बोले संग चलूँगा राम। पतित पावन सीताराम॥ २२॥
सीताजी जब यह सुध पाईं। रंगमहल से निचे आईं॥
कौशल्या को किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥ २३॥
मेरी चूक क्षमा कर दीजो। वन जाने की आज्ञा दीजो॥
सीता को समझाते राम। पतित पावन सीताराम॥२४॥
मेरी सीख सिया सुन लीजो। सास ससुर की सेवा कीजो॥
मुझको भी होगा विश्राम। पतित पावन सीताराम॥ २५॥
मेरा दोष बता प्रभु दीजो। संग मुझे सेवा में लीजो॥
अर्द्धांगिनी तुम्हारी राम। पतित पावन सीताराम॥ २६॥
राम लखन मिथिलेश कुमारी। बन जाने की करी तैयारी॥
रथ में बैठ गए सुख धाम। पतित पावन सीताराम॥ २७॥
अवधपुरी के सब नर-नारी। समाचार सुन व्याकुल भारी॥
मचा अवध में अति कोहराम। पतित पावन सीताराम॥२८॥
श्रृंगवेरपुर रघुबर आए। रथ को अवधपुरी लौटाए॥
गंगा तट पर आए राम। पतित पावन सीताराम॥ २९॥
केवट कहे चरण धुलवाओ। पीछे नौका में चढ़ जाओ॥
पत्थर कर दी नारी राम। पतित पावन सीताराम॥३०॥
लाया एक कठौता पानी। चरण-कमल धोये सुखमानी॥
नाव चढाये लक्ष्मण राम। पतित पावन सीताराम॥३१॥
उतराई में मुंदरी दीन्हीं। केवट ने यह विनती कीन्हीं॥
उतराई नहीं लूँगा राम। पतित पावन सीताराम॥३२॥
तुम आए हम घाट उतारे। हम आयेंगे घाट तुम्हारे॥
तब तुम पार लगाओ राम। पतित पावन सीताराम॥३३॥
भारद्वाज आश्रम पर आए। राम लखन ने शीष नवाए॥
एक रात कीन्हा विश्राम। पतित पावन सीताराम॥३४॥
भाई भरत अयोध्या आए। केकैई को यह वचन सुनाए॥
क्यों तुमने वन भेजे राम। पतित पावन सीताराम॥३५॥
चित्रकूट रघुनन्दन आए। वन को देख सिया सुख पाये॥
मिले भरत से भाई राम। पतित पावन सीताराम॥३६॥
अवधपुरी को चलिए भाई। ये सब केकैई की कुटिलाई॥
तनिक दोष नहीं मेरा राम। पतित पावन सीताराम॥३७॥
चरण पादुका तुम ले जाओ। पूजा कर दर्शन फल पाओ॥
भरत को कंठ लगाए राम। पतित पावन सीताराम॥ ३८॥
आगे चले राम रघुराया। निशाचरों का वंश मिटाया॥
ऋषियों के हुए पूरन काम। पतित पावन सीताराम॥ ३९॥
मुनिस्थान आए रघुराई। शूर्पणखा की नाक कटाई॥
खरदूषन को मारे राम।पतित पावन सीताराम॥ ४०॥
पंचवटी रघुनन्दन आए। कनक मृग 'मारीच' संग धाये॥
लक्ष्मण तुम्हे बुलाते राम। पतित पावन सीताराम॥ ४१॥
रावन साधु वेष में आया। भूख ने मुझको बहुत सताया॥
भिक्षा दो यह धर्म का काम। पतित पावन सीताराम॥ ४२॥
भिक्षा लेकर सीता आई। हाथ पकड़ रथ में बैठी॥
सूनी कुटिया देखी राम। पतित पावन सीताराम॥ ४३॥
धरनी गिरे राम रघुराई। सीता के बिन व्याकुलताई॥
हे प्रिय सीते, चीखे राम। पतित पावन सीता राम॥ ४४॥
लक्ष्मण, सीता छोड़ न आते। जनकदुलारी नहीं गवांते॥
तुमने सभी बिगाड़े काम। पतित पावन सीता राम॥ ४५॥
कोमल बदन सुहासिनी सीते। तुम बिन व्यर्थ रहेंगे जीते॥
लगे चाँदनी जैसे घाम। पतित पावन सीता राम॥ ४६॥
सुन री मैना, सुन रे तोता॥ मैं भी पंखों वाला होता॥
वन वन लेता ढूंढ तमाम। पतित पावन सीता राम॥ ४७॥
सुन रे गुलाब, चमेली जूही। चम्पा मुझे बता दे तू ही॥
सीता कहाँ पुकारे राम। पतित पावन सीताराम॥ ४८॥
हे नाग सुनो मेरे मन हारी। कहीं देखी हो जनक दुलारी॥
तेरी जैसी चोटी श्याम। पतित पावन सीताराम॥४९॥
श्यामा हिरनी तू ही बता दे। जनक-नंदिनी मुझे मिला दे॥
तेरे जैसी आँखें श्याम। पतित पावन सीताराम॥५०॥
हे अशोक मम शोक मिटा दे। चंद्रमुखी से मुझे मिला दे॥
होगा तेरा सच्चा नाम। पतित पावन सीताराम॥५१॥
वन वन ढूंढ रहे रघुराई। जनकदुलारी कहीं न पाई॥
गिद्धराज ने किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥५२॥
चखचख कर फल शबरी लाई। प्रेम सहित पाये रघुराई॥
ऐसे मीठे नहीं हैं आम। पतित पावन सीताराम॥५३॥
विप्र रूप धरि हनुमत आए। चरण-कमल में शीश नवाए॥
कंधे पर बैठाये राम। पतित पावन सीताराम॥५४॥
सुग्रीव से करी मिताई। अपनी सारी कथा सुनाई॥
बाली पहुँचाया निज धाम। पतित पावन सीताराम॥५५॥
सिंहासन सुग्रीव बिठाया। मन में वह अति ही हर्षाया॥
वर्षा ऋतु आई हे राम। पतित पावन सीताराम॥५६॥
हे भाई लक्ष्मण तुम जाओ। वानरपति को यूँ समझाओ॥
सीता बिन व्याकुल हैं राम। पतित पावन सीताराम॥५७॥
देश-देश वानर भिजवाए। सागर के तट पर सब आए॥
सहते भूख, प्यास और घाम। पतित पावन सीताराम॥५८॥
सम्पाती ने पता बताया। सीता को रावण ले आया॥
सागर कूद गये हनुमान। पतित पावन सीताराम॥5९॥
कोने-कोने पता लगाया। भगत विभीषण का घर पाया॥
हनुमान ने किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥६०॥
हनुमत अशोक वाटिका आए। वृक्ष तले सीता को पाए॥
आँसू बरसे आठों याम। पतित पावन सीताराम॥६१॥
रावण संग निशाचरी लाके। सीता को बोला समझा के॥
मेरी और तो देखो बाम। पतित पावन सीताराम॥६२॥
मंदोदरी बना दूँ दासी। सब सेवा में लंकावासी॥
करो भवन चलकर विश्राम। पतित पावन सीताराम॥६३॥
चाहे मस्तक कटे हमारा। मैं देखूं न बदन तुम्हारा॥
मेरे तन-मन-धन हैं राम। पतित पावन सीताराम॥६४॥
ऊपर से मुद्रिका गिराई। सीता जी ने कंठ लगाई॥
हनुमान ने किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥६५॥
मुझको भेजा है रघुराया। सागर कूद यहाँ मैं आया॥
मैं हूँ राम-दास हनुमान॥ पतित पावन सीताराम॥६६॥
माता की आज्ञा मैं पाऊँ। भूख लगी मीठे फल खाऊँ॥
पीछे मैं लूँगा विश्राम। पतित पावन सीताराम॥६७॥
वृक्षों को मत हाथ लगाना। भूमि गिरे मधुर फल खाना॥
निशाचरों का है यह धाम। पतित पावन सीताराम॥६८॥
हनुमान ने वृक्ष उखाड़े। देख-देख माली ललकारे॥
मार-मार पहुंचाए धाम। पतित पावन सीताराम॥६९॥
अक्षय कुमार को स्वर्ग पहुँचाया। इन्द्रजीत फाँसी ले आया॥
ब्रह्मफांस से बंधे हनुमान। पतित पावन सीताराम॥ ७०॥
सीता को तुम लौटा दीजो। प्रभु से क्षमा याचना कीजो॥
तीन लोक के स्वामी राम। पतित पावन सीताराम॥ ७१॥
भगत विभीषन ने समझाया। रावण ने उसको धमकाया॥
सम्मुख देख रहे हनुमान। पतित पावन सीताराम॥ ७२॥
रुई, तेल, घृत, बसन मंगाई। पूँछ बाँध कर आग लगाई॥
पूँछ घुमाई है हनुमान। पतित पावन सीताराम॥ ७३॥
सब लंका में आग लगाई। सागर में जा पूँछ बुझाई॥
ह्रदय-कमल में राखे राम। पतित पावन सीताराम॥ ७४॥
सागर कूद लौटकर आए। समाचार रघुवर ने पाए।
जो माँगा सो दिया इनाम। पतित पावन सीताराम॥ ७५॥
वानर रीछ संग में लाए। लक्ष्मण सहित सिन्धु तट आए॥
लगे सुखाने सागर राम। पतित पावन सीताराम॥ ७६॥
सेतु कपि नल नील बनावें। राम राम लिख शिला तैरावें।
लंका पहुँचे राजा राम। पतित पावन सीताराम॥ ७७॥
निशाचरों की सेना आई। गरज तरज कर हुई लड़ाई॥
वानर बोले जय सियाराम पतित पावन सीताराम॥ ७८॥
इन्द्रजीत ने शक्ति चलाई। धरनी गिरे लखन मुरछाई।
चिंता करके रोये राम। पतित पावन सीताराम॥ ७९॥
जब मैं अवधपुरी से आया। हाय! पिता ने प्राण गंवाया॥
वन में गई चुराई वाम। पतित पावन सीताराम॥ ८०॥
भाई, तुमने भी छिटकाया। जीवन में कुछ सुख नहीं पाया॥
सेना में भारी कोहराम। पतित पावन सीताराम॥ ८१॥
जो संजीवनी बूटी को लाये। तो भी जीवित हो जाए॥
बूटी लायेगा हनुमान। पतित पावन सीताराम॥ ८२॥
जब बूटी का पता न पाया। पर्वत ही लेकर के आया॥
कालनेमि पहुँचाया धाम। पतित पावन सीताराम॥ ८३॥
भक्त भरत ने बाण चलाया। चोट लगी हनुमत लंग्दय॥
मुख से बोले जय सिया राम। पतित पावन सीताराम॥ ८४॥
बोले भरत बहुत पछता कर। पर्वत सहित बाण बिठा कर॥
तुम्हें मिला दूँ राजा राम । पतित पावन सीताराम॥ 85॥
बूटी लेकर हनुमत आया। लखन लाल उठ शीश नवाया।
हनुमत कंठ लगाये राम। पतित पावन सीता राम॥ ८६॥
कुम्भकरण उठ कर तब आया। एक बाण से उसे गिराया ॥
इन्द्रजीत पहुँचाया धाम। पतित पावन सीता राम ॥८७॥
दुर्गा पूजा रावण कीनो॥ नौ दिन तक आहार न लीनो॥
आसन बैठ किया है ध्यान। पतित पावन सीता राम॥८८॥
रावण का व्रत खंडित किना। परम धाम पहुँचा ही दीना॥
वानर बोले जयसिया राम। पतित पावन सीता राम॥ ८९॥
सीता ने हरि दर्शन किना। चिंता-शोक सभी ताज दीना॥
हंसकर बोले राजाराम। पतित पावन सीता राम॥ ९०॥
पहले अग्नि परीक्षा कराओ। पीछे निकट हमारे आओ॥
तुम हो पति व्रता हे बाम। पतित पावन सीता राम॥ ९१॥
करी परीक्षा कंठ लगाई। सब वानर-सेना हरषाई॥
राज विभीष्ण दीन्हा राम। पतित पावन सीता राम॥ ९२॥
फिर पुष्पक विमान मंगवाया। सीता सहित बैठ रघुराया॥
किष्किन्धा को लौटे राम। पतित पावन सीता राम॥ ९३॥
ऋषि पत्नी दर्शन को आई। दीन्ही उनको सुन्दर्तई॥
गंगा-तट पर आए राम। पतित पावन सीता राम॥ ९४॥
नंदीग्राम पवनसूत आए। भगत भरत को वचन सुनाये॥
लंका से आए हैं राम। पतित पावन सीता राम॥ ९५॥
कहो विप्र, तुम कहाँ से आए। ऐसे मीठे वचन सुनाये॥
मुझे मिला दो भैया राम। पतित पावन सीता राम॥९६॥
अवधपुरी रघुनन्दन आए। मन्दिर-मन्दिर मंगल छाये॥
माताओं को किया प्रणाम। पतित पावन सीता राम॥९७॥
भाई भरत को गले लगाया। सिंहासन बैठे रघुराया॥
जग ने कहा, हैं राजा राम। पतित पावन सीता राम॥९८॥
सब भूमि विप्रों को दीन्ही। विप्रों ने वापिस दे दीन्ही॥
हम तो भजन करेंगे राम। पतित पावन सीता राम॥९९॥
धोबी ने धोबन धमकाई। रामचंद्र ने यह सुन पाई॥
वन में सीता भेजी राम। पतित पावन सीता राम॥१००॥
बाल्मीकि आश्रम में आई। लव और कुश हुए दो भाई॥
धीर वीर ज्ञानी बलवान। पतित पावन सीता राम॥ १०१॥
अश्वमेघ यज्ञ कीन्हा राम। सीता बिनु सब सुने काम।।
लव-कुश वहां लियो पहचान। पतित पावन सीता राम॥ १०२॥
सीता राम बिना अकुलाईँ। भूमि से यह विनय सुनाईं॥
मुझको अब दीजो विश्राम। पतित पावन सीता राम॥ १०३॥
सीता भूमि माई समाई। सुनकर चिंता करी रघुराई॥
उदासीन बन गए हैं राम। पतित पावन सीता राम॥ १०४॥
राम-राज्य में सब सुख पावें। प्रेम-मग्न हो हरि गुन गावें॥
चोरी चाकरी का नहीं काम। पतित पावन सीता राम॥ १०५॥
ग्यारह हज़ार वर्षः पर्यन्त। राज किन्ही श्री लक्ष्मीकंता॥
फिर बैकुंठ पधारे राम। पतित पावन सीता राम॥ १०६॥
अवधपुरी बैकुंठ सीधी। नर-नारी सबने गति पाई॥
शरणागत प्रतिपालक राम। पतित पावन सीता राम॥ १०७॥
'हरि भक्त' ने लीला गाई। मेरी विनय सुनो रघुराई॥
भूलूँ नहीं तुम्हारा नाम। पतित पावन सीता राम॥ १०८॥


सही बात यह है कि जिस तरह साकार भगवान से आगे की चालाक़ी निराकार भगवान है उसी तरह धर्म से आगे की चालाक़ी धर्मनिरपेक्षता है।
इस नज़रिए से सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि जो लोग आर एस एस को कट्टरपंथी (जोकि आर एस एस सौ प्रतिशत है) कहकर प्रगतिशील बनना चाहते हैं, क्या ख़ुद
वे वाक़ई प्रगतिशील हैं


उस परिंदे की तरह
छूना चाहती थी नीले
आसमान को.…
और हौंसले की कमी भी न थी
पर शायद वक़्त ने
पर ही क़तर दिए


पर वह थोड़ी थक जाती हैं। थकना कभी इंची टेप से मापा नहीं, पर वह इसे थोड़ा ही कहती रही हैं। बिलकुल हमारी माँ की टू-कॉपी। वक़्त इस तरह हरबार रसोई में ख़ुद को
दोहराता रहा। चाहे हम देखें या न देखें। फ़िर सब कहते भी हैं, लड़कों को अपनी मम्मी नहीं शादी के बाद बीवी ही नज़र आती हैं। शायद सब सच ही कहा करते होंगे। पर दोनों
को पूरे दिन की भागादौड़ी के बाद कभी यहाँ आकर इस किताब को पढ़ने की फ़ुरसत उन्हे कहाँ? दोनों एक-दूसरे की आँखों में सब पढ़ते रहे हैं।


धर्म की दीवार बड़ी दिखती नहीं मगर
फसादों की दुल्हन रोज नयी-नवेली
घटता हुआ धीरज सिमटता हुआ जहन
क्षण में मिटे दोस्ती लगती है पहेली
साजिशो का मजमा, खूनी है सियासत
था प्यार का राग जहाँ सूनी है हवेली


ब्रिटिश लेखिका एलिस एल्बिनिया ने कुछ साल पहले महाभारत की कथा को आधुनिक सन्दर्भ देते हुए एक उपन्यास लिखा था ‘द लीलाज बुक’, इसमें समकालीन जीवन सन्दर्भों
में संस्कृति-परम्परा की छवियों को देखने की एक मजेदार कोशिश की गई है. इसमें एक पात्र शिव है जो उस भारत की तलाश में है जो मुसलमानों और अंग्रेजों के आने से
पहले था. लेकिन उसकी मुश्किल यह है कि उसकी बात का सभी उपहास उड़ाते हैं. समय के साथ परम्पराएँ हमें हास्यास्पद लगने लगती हैं.

राष्ट्र निर्माण के लिये...
चरित्र निर्माण आवश्यक है...
ये तभी संभव है...
जब हम अपनी आने वाली पिढ़ी को...
बचपन से ही राम कथा  सुनाएंगे...
  धन्यवाद...


मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है......बस छः कदम और

सादर अभिवादन..
देवी जी..

माता रानी की सेवा में 
लगी हुई है..
आदेश हुआ कि
आज मुझे यहां

आपसे मुखातिब होना है

लीजिए ये रहे आज की पसंदीदा रचनाएं...


अंतिमसमय‬
वैसे कल से मैं अपने साथ ध्‍यान रखने के लिए एक सहयोगी की नियुक्ति कर रहा हूं। यह निर्णय मैं आज के एक्‍सीडेंट के बाद ले चुका हूं। अब क्‍योंकि मेरे स्‍वास्‍थ्‍य में सुधार हो रहा है इसलिए मैं उनके लिए खतरा बनता जा रहा हूं। उन्‍हें ऐसा ही लगता है।


हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है
न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है

जिसे ढो रहे हैं मुफ़लिस है वो पाप उस जनम का
जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है


राम और सीता की तरह
एक उम्र गुजर जाती है 
अपने ही ह्रदय को
अपनी ही आत्मा से 
मिलने में 
एक सार करने में.


एक नारी ऐसी भी
वर्तमान नारी का जीवन, क्यों इतनी व्यथित हुई है. 
व्याभिचारी-अपराधी बनकर, क्यों स्वार्थी चित्रित हुई है. 
जब-जब भी वह बहकी पथ से, वो पथभ्रष्ट दूषित हुई है. 


अब गाय गाँव आएगा क्या ?
बहुत साल हुए हम लोग पटियाला जा रहे थे कि छोटे बेटे प्रद्युम्न जो कि चार साल का था, ने रोना शुरू कर दिया। उसकी मांग और जिद थी कि वह कार की सीट के नीचे घुसेगा और वहीँ सोयेगा भी। मनाने पर भी मान नहीं रहा था। तभी मेरी नज़र माइल -स्टोन पर पड़ी। जिस पर लिखा था, 'गिदड़बाहा 'पांच किलोमीटर ! 


चाह नहीं ऐसे दर जाने की
जहां सदा होती मनमानी
वे अपना राग अलापते
साथ चलने से कतराते
घर बना रहता सदा ही


और ये रही आज की अंतिम कड़ी

कड़े    दिन   हैं,  मियां  !   टोपी   लगा  लें
फ़रिश्तों   की      नज़र    अच्छी  नहीं  है

हंसें   या   रोएं   अब   इस  बात  पर  हम
ग़ज़ल    उम्दा     मगर    अच्छी  नहीं  है !


इज़ाजत दें दिग्विजय को
फिर मिल सकते हैं
ईश्वरेच्छा पर निर्भर है

सादर....