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रविवार, 6 सितंबर 2015

मैं घोर विषाद के बीच भी तुरन्त मुस्कुराने लगता हूँ---अंक 50


जय मां हाटेशवरी...

गीता का उपदेश अत्यन्त पुरातन योग है। श्री भगवान् कहते हैं इसे मैंने सबसे पहले सूर्य से कहा था। सूर्य ज्ञान का प्रतीक है अतः श्री भगवान् के वचनों का तात्पर्य
है कि पृथ्वी उत्पत्ति से पहले भी अनेक स्वरूप अनुसंधान करने वाले भक्तों को यह ज्ञान दे चुका हूँ। यह ईश्वरीय वाणी है जिसमें सम्पूर्ण जीवन का सार है एवं आधार
है। मैं कौन हूँ? यह देह क्या है? इस देह के साथ क्या मेरा आदि और अन्त है? देह त्याग के पश्चात् क्या मेरा अस्तित्व रहेगा? यह अस्तित्व कहाँ और किस रूप में
होगा? मेरे संसार में आने का क्या कारण है? मेरे देह त्यागने के बाद क्या होगा, कहाँ जाना होगा? किसी भी जिज्ञासु के हृदय में यह बातें निरन्तर घूमती रहती हैं।
हम सदा इन बातों के बारे में सोचते हैं और अपने को, अपने स्वरूप को नहीं जान पाते। गीता शास्त्र में इन सभी के प्रश्नों के उत्तर सहज ढंग से श्री भगवान् ने
धर्म संवाद के माध्यम से दिये हैं। इस देह को जिसमें 36 तत्व जीवात्मा की उपस्थिति के कारण जुड़कर कार्य करते हैं, क्षेत्र कहा है और जीवात्मा इस क्षेत्र में
निवास करता है, वही इस देह का स्वामी है परन्तु एक तीसरा पुरुष भी है, जब वह प्रकट होता है; अधिदैव अर्थात् 36 तत्वों वाले इस देह (क्षेत्र) को और जीवात्मा
(क्षेत्रज्ञ) का नाश कर डालता है। यही उत्तम पुरुष ही परम स्थिति और परम सत् है। यही नहीं, देह में स्थित और देह त्यागकर जाते हुए जीवात्मा की गति का यथार्थ
वैज्ञानिक एंव तर्कसंगत वर्णन गीता शास्त्र में हुआ है। जीवात्मा नित्य है और आत्मा (उत्तम पुरुष) को जीव भाव की प्राप्ति हुई है। शरीर के मर जाने पर जीवात्मा
अपने कर्मानुसार विभिन्न योनियों में विचरण करता है। गीता का प्रारम्भ धर्म शब्द से होता है तथा गीता के अठारहवें अध्याय के अन्त में इसे धर्म संवाद कहा है।
धर्म का अर्थ है धारण करने वाला अथवा जिसे धारण किया गया है। धारण करने वाला जो है उसे आत्मा कहा गया है और जिसे धारण किया है वह प्रकृति है। आत्मा इस संसार
का बीज अर्थात पिता है और प्रकृति गर्भधारण करने वाली योनि अर्थात माता है।
धर्म शब्द का प्रयोग गीता में आत्म स्वभाव एवं जीव स्वभाव के लिए जगह जगह प्रयुक्त हुआ है। इसी परिपेक्ष में धर्म एवं अधर्म को समझना आवश्यक है। आत्मा का स्वभाव
धर्म है अथवा कहा जाय धर्म ही आत्मा है। आत्मा का स्वभाव है पूर्ण शुद्ध ज्ञान, ज्ञान ही आनन्द और शान्ति का अक्षय धाम है। इसके विपरीत अज्ञान, अशांति, क्लेश
और अधर्म का द्योतक है।
आत्मा अक्षय ज्ञान का स्रोत है। ज्ञान शक्ति की विभिन्न मात्रा से क्रिया शक्ति का उदय होता है, प्रकति का जन्म होता है। प्रकृति के गुण  सत्त्व, रज, तम का जन्म होता है। सत्त्व-रज की अधिकता धर्म को जन्म देती है, तम-रज की अधिकता होने पर आसुरी वृत्तियाँ प्रबल होती और धर्म की स्थापना अर्थात गुणों के स्वभाव
को स्थापित करने के लिए, सतोगुण की वृद्धि के लिए, अविनाशी ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त आत्मा अपने संकल्प से देह धारण कर अवतार गृहण करती है।
सम्पूर्ण गीता शास्त्र का निचोड़ है बुद्धि को हमेशा सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि आत्मा में लगाये रक्खो तथा संसार के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से
करते रहो। स्वभावगत कर्म करना सरल है और दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना कठिन है क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न भिन्न प्रकृति को लेकर जन्मा है, जीव जिस
प्रकृति को लेकर संसार में आया है उसमें सरलता से उसका निर्वाह हो जाता है। श्री भगवान ने सम्पूर्ण गीता शास्त्र में बार-बार आत्मरत, आत्म स्थित होने के लिए
कहा है। स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है अतः इसे ही निश्चयात्मक मार्ग माना है। यद्यपि अलग-अलग देखा जाय तो ज्ञान योग, बुद्धि योग, कर्म
योग, भक्ति योग आदि का गीता में उपदेश दिया है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो सभी योग बुद्धि से श्री भगवान को अर्पण करते हुए किये जा सकते हैं
इससे अनासक्त योग निष्काम कर्म योग स्वतः सिद्ध हो जाता है।
भगवान् कृष्ण ने एक ऐतिहासिक घटना का सहारा लेते हुए इस बात की शिक्षा दी है कि मनुष्य को अपनार् कत्ताव्य करने के लिए अपने जीवन की बलि देने में भी संकोच नहीं
करना चाहिए। इसमें परिणाम की चिंता किए बिना कर्म करने पर बल दिया गया है क्योंकि देह की मर्यादाओं में बन्धो हम मानव अपने अलावा और किन्हीं के कृत्यों को नियन्त्रित
करने में असमर्थ हैं।'' अपने वक्तव्य में आगे चलकर गान्धी की यह स्वीकारोक्ति बहुत मर्मपूर्ण है कि - ''जब सन्देह मुझे घेर लेता है, जब निराशा मेरे सम्मुख खड़ी
होती है, जब क्षितिज पर प्रकाश की एक किरण भी नहीं दिखाई देती, तब मैं भगवद्गीता की शरण में जाता हूँ और उसका कोई न कोई श्लोक मुझे सान्त्वना दे जाता है और
मैं घोर विषाद के बीच भी तुरन्त मुस्कुराने लगता हूँ। इसका श्रेय मैं भगवद्गीता को देता हूँ।'' (महात्मा गान्धी के विचार पृ. 88) इसी तरह तिलक का 'गीता-रहस्य'
ग्रन्थ उनकी गीता के प्रति निष्ठा का श्रेष्ठ उदाहरण है और उनकी स्वाराज्य की अवधारणा गीता के दर्शन से स्पष्ट तथा प्रभावित है। श्री अरविन्द अपने गीता प्रबन्ध
के आरम्भिक पृष्ठों में लिखते हैं कि 'गीता तर्क की लड़ाई का हथियार नहीं है। गीता को सर्व साधारण अध्यात्म शास्त्र या नीतिशास्त्र का ग्रन्थ मान लेने से भी
काम नहीं चलेगा बल्कि नीतिशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र मानव जीवन में प्रत्यक्ष प्रयोग करते हुए ही व्यवहार में जो संकट उपस्थित होता है उसे दृष्टि के सामने
रखकर इस ग्रन्थ के प्रभाव को समझना होगा।'' (सन्दर्भ - बसंतेश्वरी भगवदगीता से)
अब देखिये आज के 5 लिंक...
रूप-अरूप: तुम्‍हारी कोई जगह नहीं....रश्मि शर्मा
मगर अब
तुम
मेरी आंखों से
उतर चुके हो
तुम
हो अब भी मेरे आसपास
मगर
मेरी जिंदगी में अब
तुम्‍हारी
कोई जगह नहीं.....।

Samaadhan: फौजिया सईद ने जवाब दिया.-Vivek Surange

मैं समझती हूँ की अगर हम ये स्वीकार कर लेंगे की हम में ये बुराईयाँ हैं तो शायद हमारी ज्यादा आँखें खुली रहें.. अगर ख्वाबों और ख्यालों मेंहम अपने पुराने ज़माने
के रोमांस ढूंढते रहेंगे तो कुछ नहीं होने वाला है..
मैं समझती हूँ कि इस भूभाग में तमाम धर्म आये.. मैं नहीं समझती की हम सिर्फ मुसलमान लोग हैं.. मैं समझती हूँ की इसी भूभाग में हम बुद्धिस्ट भी थे.. इसी भूभाग
में हम हिन्दू भी थे.. इसी भूभाग में हम मुसलमान थे..

मनोरमा: बढे चलो अविराम मुसाफिर-श्यामल सुमन
 मूल्य बचे तो जी लेंगे सब
देना है पैगाम मुसाफिर
भूखे हैं जन आम मुसाफिर
खाते कुछ बादाम मुसाफिर
अगर विषमता नहीं मिटी तो
सोच सुमन अंजाम मुसाफिर

देहात: नाम ही तो है--राजीव कुमार झा
उसका उद्देश्य तो सिर्फ अलर्क को आत्मज्ञान कराना था.अलर्क को सचमुच आत्मज्ञान प्राप्त हो गया.उसने भी राज्य वापस लेने से इंकार कर दिया.अंततः जब
कोई राज्य ग्रहण करने को सहमत नहीं हुआ तो अलर्क के बड़े पुत्र को राज्य सौंप दिया गया.
इस प्रकार विश्व का प्रथम दल-बदल हुआ.



छींटे और बौछारें--गूगल डॉक्स में बोल कर हिंदी लिखने की उम्दा सुविधा उपलब्ध-Ravishankar Shrivastava 
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धन्यवाद...

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