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गुरुवार, 24 अप्रैल 2025

4468...भूलो नहीं कि यह धूल ही है, जिससे आख़िर में तुम्हें मिलना है...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय ओंकार जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

शोक और आक्रोश के माहौल में डूबा देश पहलगाम कश्मीर में हुए नरसंहार को लेकर क्षुब्ध है। आरोप-प्रत्यारोप के दौर में सरकार व सैन्य बलों को समय मिलना चाहिए कारगर रणनीति बनाने का ताकि ऐसे दुर्दांत दरिंदों को कड़ा सबक़ सिखाया जा सके जो मानवता और शांति के शत्रु हैं।

803. धूल

महसूस करो उसका स्पर्श,

आदत डाल लो उसकी,

भूलो नहीं

कि यह धूल ही है,

जिससे आख़िर में

तुम्हें मिलना है।

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किताबों से बात

इन्ही किताबों पर है दारोमदार

विद्या के सम्यक बीजारोपण का।

मेधा और विवेक के सिंचन का।

*****

स्मृति के छोर पर

वह दिन में नहीं सोता

इस डर से नहीं कि रात को उठने पर

कहीं वह रात को

रातके रूप में पहचान न पाया तो,

बल्कि इसलिए

कि वह

दिन को दिनके रूप में पहचानता है,

और स्वयं को पुकारता है

टूटती पहचान की अंतिम दीवार की तरह।

*****

टाइम कैप्सूल

मेरी नानी की माँ एक बोली की ज्ञाता थीं! उस बोली को संरक्षित नहीं किए जाने से उनके साथ उनकी बोली लुप्त हो गई…! एक दिन ऐसा न हो कि धरती से पानी भी लुप्त हो जाये. . .! और जलरोधक पात्र में जल भरकर जमीन में दबाना पड़ जाए. . .!

नहीं! नहीं! ऐसा नहीं होगा बड़े मामा. . .! आप ही तो अक्सर कहते हैं, ‘जब जागो तभी सवेरा’! कोशिश करते हैं अभी से जागने-जगाने हेतु. . .!

*****

सपूत

पर मन में एक खटका बना ही हुआ था, क्योंकि उन्हें अपना सामान नजर नहीं आ रहा था! हेमंत से पूछने पर उसने कहा आप जहां रहेंगे वहां रखवा दिया है! रामगोपाल जी समझ गए कि मुझे यहां नहीं रहना है! सामान पहले ही वृद्धाश्रम भिजवा दिया गया है! आज नहीं तो कल तो जाना ही था, पहले से ही पहुंचा दिया गया है! तभी हेमंत बोला, पापा आपके लिए एक सरप्राइज है! रामगोपाल जी ने मन में सोचा काहे का सरप्राइज बेटा, मैं सब जानता हूँ! तुम भी दुनिया से अलग थोड़े ही हो! पैसा क्या कुछ नहीं करवा लेता है! खुद पर क्रोध भी आ रहा था कि सब जानते-समझते भी सब बेच-बाच कर यहां क्यों चले आए! पर अब तो जो होना था हो चुका था!

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

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