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सोमवार, 31 मार्च 2025

4444 ,, जो समय के पहले देख लें, और समय के पहले देखने का अर्थ है





यहां जो भी है सब खो जाता है। यहां जो भी है खोने को ही है यहां मित्रता खो जाती है, प्रेम खो जाता है; धन पद, प्रतिष्ठा खो जाती है। यहां कोई भी चीज जीवन को भर नहीं पाती; भरने का भ्रम देती है, आश्वासन देती है, आशा देती है। लेकिन सब आशाएं मिट्टी में मिल जाती हैं, और सब आश्वासन झूठे सिद्ध होते हैं। और जिन्हें हम सत्य मानकर जीते हैं वे आज नहीं कल सपने सिद्ध हो जाते हैं। जिसे समय रहते यह दिखाई पड़ जाए उसके जीवन में क्रांति घटित हो जाती है। मगर बहुत कम हैं सौभाग्यशाली जिन्हें समय रहते यह दिखाई पड़ जाए। यह दिखाई सभी को पड़ती है, लेकिन उस समय पड़ता है जब समय हाथ में नहीं रह जाता। उस समय दिखाई पड़ता है जब कुछ किया नहीं जा सकता। आखिरी घड़ी में दिखाई पड़ता है। श्वास टूटती होती है तब दिखाई पड़ता है। जब सब छूट ही जाता है हाथ से तब दिखाई पड़ता है। लेकिन तब सुधार का कोई उपाय नहीं रह जाता। जो समय के पहले देख लें, और समय के पहले देखने का अर्थ है, जो मौत के पहले देख लें। मौत ही समय है।






सब कुछ वैसे ही चलता है
जैसे चलता था
जब तुम थे
रात भी वैसे ही सर मूँदे आती है
दिन वैसे ही आँखें मलता जागता है
तारे सारी रात जमाईयाँ लेते हैं
सब कुछ वैसे ही चलता है,
जैसे चलता था जब तुम थे






हर दिन होता है एक नया दिन
नये सिरे से होती है यात्रा आरंभ
क्षितिज पर उदय होता नया सूर्य
दिग-दिगंत किरणों की बंदनवार  

पंखुड़ियों की ओट ले खिले फूल
पंछी चहके, कल-कल बहा जल
पकी फसल, पवन छेड़े मृदु मृदंग
भ्रमर चकित सुन सृष्टि का अनुनाद





उसने आकर हम दोनों का अभिवादन किया और मेरे दोस्त से बात करने लगी। मैं तो उस पर मोहित हो गया था। उसे देखता ही रह गया । कितनी खूबसूरत लड़की थी वह।  और उसके जाते ही अपने दोस्त से मैंने कहा कि तेरे मामा की बेटी तो बहुत सुंदर है उससे मेरी शादी की बात चला दे यार।  दोस्त ने मुझे खा जाने वाली नजरों से देखा और बोला साले आज तेरी शादी को छः दिन ही हुए हैं और तू मेरी ममेरी बहन को ऐसे देख रहा है! शर्म नहीं आती तुझे। वह आगे पता नहीं क्या-क्या कहता रहा। मुझे तब याद आया कि मेरी तो शादी हो गई है। बहुत शर्मिंदगी हुई।





हैं अँधेरी कोठरी में नूर की खिड़की "ख़याल"
आँख  अपनी बंद करके देख तो  दिल की तरफ़
सतपाल ख़याल

अब बस
कल फिर कोई तो मिलेगा
वंंदन

रविवार, 30 मार्च 2025

4443 ..माता रानी राजित है आज से

सादर अभिवादन


शुभ प्रभात



शनिवार, 29 मार्च 2025

4442 ...इस संवत का नाम सिद्धार्थी संवत होगा

 सादर अभिवादन

शुक्रवार, 28 मार्च 2025

4441...मृगतृष्णा का आभास

शुक्रवारीय अंक में 
आप सभी का हार्दिक अभिनंदन।
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आज की रचनाएँ
क्षणिकाएँ


मृगतृष्णा का आभास 

 अथाह बालू के समन्दर में ही नहीं होता

कभी-कभी हाइवे की सड़क पर 

चिलचिलाती धूप में भी

दिख जाता है बिखरा हुआ पानी

बस…,

मन में प्यास की ललक होनी चाहिए




लगातार बहते पछिया हवा से 
समय से पहले जल्दी पकने लगे हैं गेंहू 
उनके दाने हो रहे हैं छोटे 
और छोटे दाने के बारे में सोचकर 
यदि नहीं छोटा हो रहा आपका मन 
तो आप नहीं जानते 
क्या है चैत का मास ! 



अंत तक पहुँचते-पहुँचते सच

ग़ायब हो जाएगा …

किरदार सबके मन भाएगा। 

सच की परवाह किसे है ?

मुखौटा ही हाथ आएगा ।



बिखरे पड़े हैं चारों तरफ देह के बाह्य - अंतर्वस्त्र,
निःशब्द कर जाता है फिर से दर्पण का
सवाल, अस्तगामी सूर्य के साथ
डूब जाता है विगत काल ।
आदिम युग से बहुत
जल्दी लौट आता
है अस्तित्व
मेरा


मैं मानता हूँ कि हम किसी बुराई की वजह नहीं हैं लेकिन हम किसी अच्छाई की वजह ज़रूर बन सकते हैं। मैं आप सभी से अनुरोध करता हूँ कि अगर आपको कहीं भी ऐसे नंबर और नाम दिखें तो उन्हें तुरंत डिलीट कर दें ताकि आप किसी की बहन-बेटियों को अनजान खतरों से बचा सकें।

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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
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गुरुवार, 27 मार्च 2025

4440...हम जल्दी अइबे तेरी नगरी...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय अशर्फी लाल मिश्र जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पढ़िए पाँच पसंदीदा रचनाएँ-

विप्र सुदामा - 69

हर कोई  बचन था माँग रहा,

फिर कब अइहौ  मोरी नगरी।

प्रेमाश्रु  टपक रहे अंखियन से,

हम  जल्दी  अइबे  तेरी नगरी।।

***** 

बेमुरव्वत है ज़िंदगी

ख़्वाब इश्क़ के जब भी देखना चाहो

दिल को धप्पा, दुनिया कम-ज़र्फ़ देती है।

सीले मन के आहातों में अंधेरा कर;

बे-वफ़ाई मोहब्बत का रंग ज़र्द देती है।

*****

नव प्रकाश से आलोकित हो जगती सारी । नव संवत्सर।

गढ़े संवारे नवराष्ट्र

आप सुखमय हो

यह समाज सुखमय हो

यही शुभेच्छा हमारी

नव प्रकाश से आलोकित

हो जगती सारी

*****

मनोकामिनी सा मन

हवाओं में एक खुनक थी

और तुमने मेरी देह पर

ख़ामोशी की चादर लपेट थी

तुम्हारी आँखों से सारा अनकहा

मनोकामिनी की ख़ुशबू सा झर उठा था

*****

पर्दा

मुझमें क्या है मेरे जैसा

और क्या लोगों को दिखता है

झूठ के परदे पर आखिर

एक अदाकार ही टिकता है

*****

फिर मिलेंगे।

रवीन्द्र सिंह यादव


बुधवार, 26 मार्च 2025

4439..तुम कह देना..

 ।।प्रातःवंदन।।

देख रहे क्या देव, खड़े स्वर्गोच्च शिखर पर

लहराता नव भारत का जन जीवन सागर?

द्रवित हो रहा जाति मनस का अंधकार घन

नव मनुष्यता के प्रभात में स्वर्णिम चेतन!

 सुमित्रानंदन पंत

  आज की पेशकश में शामिल रचनाए..✍️

मैं लौट आता हूं अक्सर ...


लौट आता हूं मैं अक्सर 

उन जगहों से लौटकर

सफलता जहां कदम चूमती

है दम भरकर 

शून्य से थोड़ा आगे

जहां से पतन हावी

होने लगता है मन पर..

✨️

जूडिशियरी में बहुत पुराना है अंकल जज सिंड्रोम, जस्टिस वर्मा विवाद के बाद फ‍िर छिड़ी बहस..


 



दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से 14 मार्च 2025 को करोड़ों रुपए के अधजले नोट बरामद होने के बाद अंकज जज सिंड्रोम एक बार फिर बहस का केंद्र बन ..

✨️


तुम कह देना / अनीता सैनी

एक गौरैया थी, जो उड़ गई,

 एक मनुष्य था, वह खो गया।

 तुम तो कह देना

 इस बार,

 कुछ भी कह देना,

✨️

कोई तो उस तरह से अब मेरे करीब नही,

कोई शिकवा कोई शिक़ायत कोई उम्मीद नही,

बस मुलाक़ात से बढ़कर हमे कोई चीज़ नही,

✨️

।।इति शम।।

धन्यवाद 

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️


मंगलवार, 25 मार्च 2025

4438...आत्मा का चरम संगीत

मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः!उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् !!


हिन्दी अर्थ : निम्न कोटि के लोगो को सिर्फ धन की इच्छा रहती है, ऐसे लोगो को सम्मान से मतलब नहीं होता. एक मध्यम कोटि का व्यक्ति धन और सम्मान दोनों की इच्छा करता है वही एक उच्च कोटि के व्यक्ति के सम्मान ही मायने रखता है. सम्मान धन से अधिक मूल्यवान है।


असली प्रश्न यह नहीं कि मृत्यु के बाद
जीवन का अस्तित्व है कि नहीं,
असली प्रश्न तो यह कि 
क्या मृत्यु के पहले तुम
जीवित हो?


आज की रचनाएँ-

चहक उठती है सुबह सुबह  
गुलमोहर की टहनियों में
कोई चिड़िया ।
गाती है आत्मा का चरम संगीत
प्रेम तोड़ता नहीं , जोड़ता है परम से    .
मनाती है आनन्द का उत्सव ,
अपने आप में डूबी हुई
एक उम्रदराज स्त्री ,
जब होती है किसी के प्रेम में ,
गाती गुनगुनाती हुई
उम्र की तमाम समस्याओं को
झाड़कर डाल देती है डस्टबिन में ।   


उन जिद्दी हवाओं की खुशबू 
रोज एक गीत लिखती है
कि दुनिया एक रोज 
सबके जीने के लायक होगी 
न कोई हिंसा होगी, न कोई नफरत 



कहीं   हल  नहीं  , तो   चुप   रहो    शांत   हो   जाओ ,  अशांति  और    क्या    माँगती   है  -  शांति । लयबद्ध  एकाकार    साधन  की   खोज   में  फिरने  से  अच्छा   , एक  बार   खँगाल   ले ढंग   से  ,  व्यर्थ   की खोजबीन   से  बच  जायेंगे  ,   जो  चीज   निकट   में   है  उसको  खोजना  इधर - उधर  भटकना   बेकार   हीं   तो   है ,  और    फंस  भी   गए    तो कोई   बुरी   बात    नहीं   ,   क्या  दुबारा  हम   उसे   खोज  नहीं    पायेंगे  ,   ऐसा   तो   कोई  नियम  नहीं   ।


खेत में जाकर उसे निहारना,

उसकी मिटटी को सूँघना,

मेड पर बैठकर, दूब को नोचना

और कभी-कभी

मुंह में रखकर चबाना;

और महसूस करना उसका स्वाद,

यह भी मेरे लिए जरूरी काम है !


 
सूखी आँखों से बहता पानी है —
कभी न पूरी होने वाली 
प्रतीक्षा है
शिव के माथे पर चमकता
अक्षत है।


 ★★★★★★★


आज के लिए इतना ही 
मिलते हैं अगले अंक में।