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शुक्रवार, 28 मार्च 2025

4441...मृगतृष्णा का आभास

शुक्रवारीय अंक में 
आप सभी का हार्दिक अभिनंदन।
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आज की रचनाएँ
क्षणिकाएँ


मृगतृष्णा का आभास 

 अथाह बालू के समन्दर में ही नहीं होता

कभी-कभी हाइवे की सड़क पर 

चिलचिलाती धूप में भी

दिख जाता है बिखरा हुआ पानी

बस…,

मन में प्यास की ललक होनी चाहिए




लगातार बहते पछिया हवा से 
समय से पहले जल्दी पकने लगे हैं गेंहू 
उनके दाने हो रहे हैं छोटे 
और छोटे दाने के बारे में सोचकर 
यदि नहीं छोटा हो रहा आपका मन 
तो आप नहीं जानते 
क्या है चैत का मास ! 



अंत तक पहुँचते-पहुँचते सच

ग़ायब हो जाएगा …

किरदार सबके मन भाएगा। 

सच की परवाह किसे है ?

मुखौटा ही हाथ आएगा ।



बिखरे पड़े हैं चारों तरफ देह के बाह्य - अंतर्वस्त्र,
निःशब्द कर जाता है फिर से दर्पण का
सवाल, अस्तगामी सूर्य के साथ
डूब जाता है विगत काल ।
आदिम युग से बहुत
जल्दी लौट आता
है अस्तित्व
मेरा


मैं मानता हूँ कि हम किसी बुराई की वजह नहीं हैं लेकिन हम किसी अच्छाई की वजह ज़रूर बन सकते हैं। मैं आप सभी से अनुरोध करता हूँ कि अगर आपको कहीं भी ऐसे नंबर और नाम दिखें तो उन्हें तुरंत डिलीट कर दें ताकि आप किसी की बहन-बेटियों को अनजान खतरों से बचा सकें।

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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
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5 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर अंक
    लगता है नम्बरिग में कुछ गलती हुई है
    अगला अंक 4442 होगा
    सादर वंदन

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर संकलन । सभी सूत्र लाजवाब और बेहतरीन ।मेरे सृजन को आज के संकलन में सम्मिलित करने के लिए हार्दिक आभार श्वेता जी!

    जवाब देंहटाएं

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