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गुरुवार, 9 मई 2024

4121...यादें ऐसी पिकल रखा हो ज्यों बर्नी में

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया डॉ.(सुश्री) शरद सिंह जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पढ़िए पाँच पसंदीदा रचनाएँ-

शांति का शोर

उषा-प्रत्युषा ने सूरज को गले लगाया

चाँद, तारों का साथ माँग लिया

नदियाँ सागर से जा मिली

खारे-खोटे की कि किसने परवाह

हवा, खुशबू के पीछे भाग गई

बरखा ने बादल को चूम लिया

और अंबरारंभ उलझाया हुआ

और साहित्य?

मनुष्य को मौक़ा दिया सब पर इंद्रधनुष बना देने का!

*****

शायरी | यादें ऐसी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

विंडो सीट नहीं  मिलती है हर जर्नी में

यादें ऐसी पिकल रखा हो ज्यों बर्नी में

***** 

जरूरत मसले मुद्दे...

शिक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा हुए गए दिनों की बातें,

हुआ उपेक्षित जनजीवन मूलभूतअधिकारों से।

भय भूख गरीबी का चिंतन मनन विलोप कहीं,

टोपी माला रंग वसन के अलख जगे दरबारों से।

*****

 उफ्फ ये गर्मी--

अम्बर उगल रहा है आग तपिश से त्रस्त हुई धरित्रि

प्रकृति से छेड़छाड़ देखकर दुख से दुखित हुई सृष्टि।

सूरज अग्नि का बम बरसा रहा पसीने से तर-बतर

तेज धूप में बाहर निकलें कैसे ऐसी गर्मी लगे जहर।

*****

 उसका चेहरे में कई चेहरे थे...

दिन रंग बदल रहा था। बदली और धूप का खेल जारी था। मिताली छत पर लगे झूले पर सो गयी थी। बड़ी प्यारी लग रही थी। जी चाहा उसका माथा सहला दूँ फिर देखा मौसम ने ये जिम्मा ले रखा है। वो दे रहा है थपकियाँ और सहला रहा है माथा। उसे सोता छोड़कर कमरे में आ गयी। 

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

 

बुधवार, 8 मई 2024

4120..अब तेरे पैकर के क़सीदे न पढ़ूंगा.

 प्रातःवंदन 

."अष्ट अश्व रथ हो सवार

रक्तिम छटा प्राची निखार

अरुण उदय ले अनुपम आभा

किरण ज्योति दस दिशा बिखार।

सृष्टि ले रही अंगड़ाई,

जाग जाग है प्रात हुई !"

कुलवंत सिंह

लिजिए बुधवारिय भोर की प्रस्तुति में...✍️

उसका चेहरे में कई चेहरे थे...




'जिंदा रहना क्यों जरूरी होता है?' कॉफी पीते-पीते मिताली के होंठों से ये शब्द अनायास ही निकले हों जैसे। जिन्हें खुद सुनने पर वो झेंप गयी। शायद यह सोचकर कि भीतर चलने वाली बात बाहर कैसे आ गयी। 

✨️

रूहानी साँझ

पैगाम जो आहिस्ते दस्तक दे रहे थे रूहानी साँझ को l

करार कही एक छू रहा था इसके सुर्ख लबों साथ को ll

संगीत स्वर फ़रियाद आतुर जिस तरंग ढ़ल जाने को l

✨️

मै सेंटीमेंटल फूल हूं 

मैं अपने पूरे परिवार से भावात्मक रूप से जुड़ा हुआ हूं 

सभी के सुख-दुख में हमेशा ही उनके साथ खड़ा हुआ हूं 

✨️

सदा रहे उपलब्ध वही मन 


यादों का इक बोझ उठाये


मन धीरे-धीरे बढ़ता है,


भय आने वाले कल का भर


ऊँचे वृक्षों पर चढ़ता है !

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अब तेरे पैकर के क़सीदे न पढ़ूंगा

सूरज को बुझाने में इस बात का डर है

के उसका तहम्मुल कहीं बरबाद न कर दे

अरसे से क़फ़स में हूं पर सूख गये हैं..

।।इति शम।।

धन्यवाद 

पम्मी सिंह ' तृप्ति '...✍️

मंगलवार, 7 मई 2024

4119 ..खामोशी पर शोर रहता भारी सा क्यों है

 सादर अभिवादन

सोमवार, 6 मई 2024

4118 ..ख्वाहिश नहीं, मुझे मशहूर होने की

सादर अभिवादन
आज शायद कुछ है
कोई तो है नाराज
आइए देखे कुछ नई रचनाएं ...




गगन की लालिमा दे रही दुहाई
दिख रही मुझसे
दूर होती मेरी ही परछाई
डूब रहा सूरज ढल रही शाम
क्षतिज का सूरज भी जाने लगा है




चुनावी  विश्लेषण वाले तथाकथित पत्रकार 4 जून को मातम मानते हुए नजर आएंगे फिलहाल प्रेशर कुकर की सीटी वाला काम रहे है वरना कुकर तो फट ही जाएगा..! मन की शांति के लिए विरोधी इन्हें पढ़ते है और इनके यूट्यूब चैनल पर जाकर देखते हैं। यकीन मानिए दो जून की रोटी तक नही पचेगी इन खलिहर खैरातियो से  कर ले बकइती जितना करना आखिर में यही सब करने का तो खैरात मिलता है। बाकी कोई नही टक्कर में चाय वाला फिर से आ रहा है पूर्ण बहुमत में .. चाय वाला चौकीदार बना था पिछले चुनाव में इस साल परिवार बन चुका है सबका और  देश जिसका परिवार बन के खड़ा हो गया हो





वैसे छोले पूड़ी बनी है अगर आप खाना चाहें'। उसने सूचना भी जोड़ दी। तेल मसाले के खाने से बहुत दूर रहती हूँ मैं इसलिए छोले पूड़ी का नाम सुनते ही सिहरन सी हो गयी। फिर सोचा चलो कोई बात नहीं आज ये भी सही। उसे कहा 'ठीक है जो बना है वही ले आओ अलग से क्यों बनाना'।





तीन बंदरों की नयी बात लिखेंगे
गांधी और नेहरू को पडी लात की सौगात लिखेंगे
तीन बंदरों को   खुद ही सुधार लेने को
उनकी औकात लिखेंगे उनकी जात लिखेंगे




आजकल यहाँ
तपता है मौसम,
उड़ती रहती है धूल,
दोपहर बेजान-सी ।
पंछी खोले चोंच
ढूंढते हैं पानी ।




ख्वाहिश नहीं, मुझे
मशहूर होने की,"
आप मुझे "पहचानते" हो,
बस इतना ही "काफी" है।
अच्छे ने अच्छा और
बुरे ने बुरा "जाना" मुझे,
जिसकी जितनी "जरूरत" थी
उसने उतना ही "पहचाना "मुझे!


आज बस
कल सखी से मिलिएगा
सादर वंदन

रविवार, 5 मई 2024

4117 ..... आग में घी की आमद बढ़ी जा रही

 सादर अभिवादन


गंगा जी में वही पाप धुलते हैं
जो गलती से होते हैं, ...
योजना बद्ध किए गए पाप
धोने का अधिकार तो 
सिर्फ और सिर्फ यमराज जी  के पास है
(कॉपी राईट रिजर्व)

नई चुनिंदा  रचनाएं

आज की खासियत..
मोहितपन से मोहित शर्मा जी की दो रचनाएं



लिपटी स्व संज्ञान में
कुछ विशिष्ट लिबासों से,
विशिष्ट आभूषणों से लदी लकदक
कृत्रिम सुगंधों के कारावास में,




असंभव सा फैलते विष को रोकने का कार्य,
समय के हर क्षण से जैसे युद्ध लड़ें आचार्य!
महल में गूंज रही नंदिनी की चीख,
अमात्य राक्षस भी मांग रहा ईश्वर से भीख।
पुतले बने शशांक, प्रियम्वदा भरे आहें,
विषाक्त नीली आँखें अंतिम बार बस चंद्र को देखना चाहें।




बचपन में खेले हम कभी चढ़के आई जवानी
फिर आयेगा बुढ़ापा ख़त्म फिर होगी कहानी
न कुछ लेकर आये थे न ही कुछ लेके जायेंगे
न होगा दिन ऐसा सुहाना न रात ऐसी सुहानी।




आंधियों  को इजाजत  दिए जा रहे,
चिरागों  को   कहते  सलामत  रहो।

आग  में घी की आमद बढ़ी जा रही,
कह  रहे  बस्तियों  को सलामत रहो।




विकल - "हाँ तेरे साथ गलत हुआ। लाइफ इज नॉट फेयर, पर यार जीवन में कदम-कदम पर हर किसी के साथ गलत होता है। तू समाज का बदला अपनी जीवनसंगिनी से क्यों ले रहा है? भाभी तो बेचारी कभी शिकायत नहीं करती, नहीं तो कोई और होती तो तू शायद चैन से सो तक नहीं पाता। यह कोई खेल थोड़े ही है कि जीवन में तेरे विरुद्ध कुछ पॉइंट्स हुए तो तू अपनी शर्तो पर जीवन से बदला लेकर उसके विरुद्ध पॉइंट्स बनाएगा। अपनों को बेवजह दुश्मन मत बना, कुंठा के पर्दे हटाकर एक बार उनकी आँखों का समर्पण, प्रेम देखना वो तुझसे शादी करते समय भी फर्स्ट ए.सी. था और अब भी!"

आज बस. ...
कल भी मिलूंगी
सादर वंदन

शनिवार, 4 मई 2024

4116 ..हर पल ओस की तरह ताज़ा है,

 सादर अभिवादन


चिंतन ...
त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीन
दाराश्च भृत्याश्च सुहृज्जनाश्च।
तं चार्थवन्तं पुनराश्रयन्ते,
अर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धु॥

भावार्थ :  यदि मनुष्य के पास धन आ जाए तो
पराए भी अपने बन जाते हैं ; पत्नी,  पुत्र, बन्धु-बान्धव  भी स्नेह 
तथा अपनत्व दिखाने लगते हैं।

लेकिन यदि कोई धनवान निर्धन हो जाए तो
अपने भी उससे दूर हो जाते हैं। पत्नी, पुत्र, मित्र, सगे- संबंधी —सभी 
एक-एक कर साथ छोड़ देते हैं।

इससे यही ज्ञात होता है
कि धन मनुष्य का सच्चा हितैषी है।
जिसके पास धन है,
समस्त सुख उसके अधीन हैं।

नई चुनिंदा  रचनाएं

इस अंक की खासियत
आज की प्रथम तीन रचनाएं अनीता जी की है जो अलग-अलग ब्लॉग से है



नैनी आज जल्दी आ गई, कन्नड़ सिखाने में उसे आनंद आता है, वह धीरे-धीरे कुछ शब्द सीख रही है।नाश्ते के बाद वे सब्ज़ी ख़रीदने गये, बेबी कॉर्न, कुंदरू, अरबी, आँवले आदि कुछ नयी सब्ज़ियाँ मिलीं, जो पास की दुकान में नहीं मिलतीं। जून को अब ईवी चलाने में दिक्क्त नहीं होती। इतवार को ईवी कार रैली है, नन्हा उसमें जाने को कह रहा है। यह भी बताया, उसका पैथोलॉजिस्ट मित्र असम जाने वाला है, उसे मेडिकल कॉलेज में जॉब मिला गया है,




संत कहते हैं, साधक को हर सुबह अपने दिन की शुरुआत ऐसे करनी चाहिए जैसे कि वह पहली बार जगत को देख रहा है। ध्यान का अर्थ ही है,  हर पल को गहराई से महसूस करना, हर पल ओस की तरह ताज़ा है, अभी है अभी नहीं रहेगा।



जन्म पर जन्म लेता है मानव
कि कभी तो जान लेगा सम्पूर्ण
ख़ुद को
पर ऐसा होता नहीं
जब तक अनंत को भी
अनंतता का दीदार नहीं हो जाता



सार्थक अपनी शादी का कार्ड लेकर अपने मित्र समर्थ के यहाँ गया और उसने अपनी शादी का कार्ड उसकी माँ को दिया। उसकी माँ ने जिज्ञासावश कार्ड खोलकर देखा और उसमें उसके पिता का नाम संजीव देखा।  संजीव तो सार्थक के चाचा थे, जो भाभी से शादी के बाद पिता बने।





तुम्हारी मोहनी सूरत तो
हर पल आँख में रहती
दिल में जो बसी सूरत
उस सूरत का फिर क्या होगा



आज बस. ...
कल भी मिलूंगी
सादर वंदन

शुक्रवार, 3 मई 2024

4115...ठीक से समझ न सका

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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जीवन भी अबूझ पहेली सी महसूस होती है  किसी पल ऐसा महसूस होता है कुछ भी सहेजने की,समेटने की जरूरत नहीं। न सेहत, न रिश्ते, न पैसा या कुछ और...
फिर अनायास एक समम ऐसा आता है जब सब कुछ खुद ब खुद सहेज लिया जाता है।
एक उम्र में सबकुछ सहेजना खासा संतुष्ट करता है, उपलब्धि-सा लगता है,
और सब पाकर भी कभी-कभी कुछ भी सहेजे जाने की,,पाने की इच्छा और ऊर्जा दोनों ही नहीं बचती।
विरक्ति का ऐसा भाव जब महसूस होता है
जो चला गया, गुजर गया, रीत गया,छूट गया  दरअसल वो आपका, आपके लिए था ही नहीं। 
परिवर्तन तो निरंतर हो रहा है पर मन स्वीकार नहीं कर पाता है और परिवर्तन को स्वीकार न कर पाने के  दुःख में मनुष्य बहुत सारा बेशकीमती समय गँवा देता हैं।
 प्रतिपल हो रहे परिवर्तन को महसूस कर, स्वीकार करना ही निराशा और हताशा के भँवर से बाहर खींचकर

जीवन  को सुख और संतोष से भर सकता है।

आज की रचनाएँ-

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छल

उसकी 'आहमें है श्राप जितनी शक्ति
जिससे नष्ट हो सकता है किसी का
समस्त संचित पुण्यकर्म
इसी तरह पुरुष दोहराता था यें दो बात
कोई उसे ठीक से समझ न सका आज तक
जल्दी भरोसा करने की उसे
एक खराब आदत रही सदा


मताधिकार



कारण अनेक हैं बंधु
कङी धूप से लेकर 
उदासीनता तक,
पर विकल्प एक यही है,
चुनाव करना ज़रुरी है,
वर्ना अधिकार आलोचना का
भी छिन जाएगा फ़ौरन !
मौका बस एक यही है
मत की महत्ता जताने का !


शायरी...


मेरी चाहत का जादू तुझपे ऐसा चला
कि तुम एहसास दिल में छुपा ना सके
जो दिल की धड़कीं धड़कनें मेरे लिए 
आवाज़ मुझ तक ना आने से छुपा सके।

मत इस तरह मेरे ख्वाबों में आया करो
मचल उठता है दिल मोहब्बत के लिए 
मत सांसों में इस तरह आया जाया करो
अधर फड़क उठते हैं गुनगुनाने के लिए।


नये-नये दो आकर्षण में



धूर्त तत्त्व जो  आसपास के
लगे जुटाने  तत्त्व नाश के
इक चिंगारी काम कर गयी
जीने वाली  चाह  मर गयी
 
ऐसे  ध्वंस  बहुत  होते हैं
बिन  अनुभव  वाले रोते हैं
दुःख के  बोझे  भी ढोते है
जीवन को प्रतिदिन खोते हैं



जीनोम एडिटिंग


गुरु का काम ही है कि दस साल में वो भी पहचान ले कि किस बच्चे में क्या पोटेंशियल है. किसे मेडिकल में जाना चाहिए, किसे इंजीनियरिंग में. कौन खेल से नाम कमायेगा और कौन संगीत साधना करेगा. ये गुरु की पारखी नजरों से छिपा नहीं रह सकता था. गुरु तो वहीं का वहीं रह जाता है, चेले पता नहीं क्या-क्या अफलातून बने फिरते हैं. पिता जी ने गणित के मास्साब को मुझे इंजीनियर बनाने की सुपारी दे रखी थी. इसलिए वो मेरी जीन एडिटिंग का कोई भी मौका नहीं छोड़ते थे. उनके पास कई तरीके कई थे - ऊँगली के बीच पेन्सिल दबाना, कान खींचना/उमेंठना, डस्टर सर पर खटखटा देना आदि-इत्यादि. जीन एडिटिंग का उनका प्रमुख शस्त्र था, नीम की संटी. जो वो मुझी से तुड़वाते. उनकी उसी एडिटिंग का अमूल्य योगदान है जो मैं गिरते-पड़ते इंजीनियर बन ही गया. 


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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
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