प्रातःवंदन
ठण्ड की एक अलसाई सी सुबह में
मैं बैठा हूं गंगा घाट के किनारे पर!
इन सब के बीच
नेमियों का झुण्ड हर-हर गंगे का
नाद करते हुए डुबकी लगा रहा है
उस पतितपावनी
गंगा की शान्त लेकिन
चंचल सी धारा में..!!
अज्ञात
आज की पेशकश में शामिल ..
मन से कुछ बाते
मन ! निज गहराई में पा लो,
एक विशुद्ध हँसी का कोना
बरबस नजर प्यार की डालो
बहुत हुआ अब रोना-धोना !
छायामय - -
अथक, बस बहे जा रहे हैं,
दोनों किनारे चाहते हैं
हमें निगल जाना,
प्रस्तर खण्ड
से टकराते
हुए हमारा वजूद
लिख रहा है रेत ..
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जब परिचित लोगों में ज़्यादा संख्या मरे हुओं की हो जाती है
इतालो कल्विनो की मशहूर किताब 'इनविजिबल सिटीज़' बहुत समय से मेरे पास है। किताब को मैंने अपने मुताबिक इस तरह बनाया है कि इसे जब इच्छा होती है कहीं से भी पढ़ सकता हूँ। इसमें मार्को पोलों बहुत सारे ..
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चिट्ठियां अब जाती नहीं
कलम से स्याही छिटक गयी , कहीं
दिलों के लफ्ज भी अब सूख गए हैं.
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह ' तृप्ति '..✍️
वाह लाजवाब प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुप्रभात ! सुंदर भूमिका और पठनीय लिंक्स का जमावड़ा,
जवाब देंहटाएंआभार पम्मी जी!
बहुत सुंदर।बहुत शुक्रिया आपका मेरी रचना को सम्मिलित करने हेतु
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