सादर अभिवादन
दिन भर ब्लॉगों पर लिखी पढ़ी जा रही 5 श्रेष्ठ रचनाओं का संगम[5 लिंकों का आनंद] ब्लॉग पर आप का ह्रदयतल से स्वागत एवं अभिनन्दन...
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रविवार, 22 दिसंबर 2024
4345 ...हिंसा द्वेष से प्रजातंत्र जल रहा है
शनिवार, 21 दिसंबर 2024
4344 ..हिंदी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूस
शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024
4343....तिरियाचरित्र का ताना
वह चाहे तो उड़ सकता है
पिंजरा खुला है
हर बंधन ढीला है
एक भ्रम है
स्वतंत्र है हर आत्मा
स्वतंत्रता उसका
जन्मसिद्ध अधिकार है !
चाहे समर भूमि में धधकता शोला हाहाकार रहे
युद्धाय कृत निश्चय: आदर्श सर माथे पर रखता है
बद्री विशाल लाल की जय का, जय घोष करता है
रेड लाईन यार्ड वर्दी धारी औरों से जो परे पहचान है
भारतमाता की शान है जो, वो वीर गढ़वाली जवान है ।
द्वार आशा के सब बंद यों हो गये
निर्गत काव्य से छंद ज्यों हो गये
मुँह के बल गिरती जाती रही कोशिशें
जो भी अच्छा किये दण्ड क्यों हो गये
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गुरुवार, 19 दिसंबर 2024
4342...नर्म सी छुअन, गर्म से एहसास...
शीर्षक पंक्ति: आदरणीय पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक लेकर हाज़िर हूँ। आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
अमीरों की बजाई धुन पर गरीबों को नाचना
पड़ता है
यदि धनवान को काँटा चुभे तो सारे शहर को खबर होती है।
निर्धन को साँप भी काटे तो
भी कोई खबर नहीं पहुँचती है ।।
अक्सर गरीब की जवानी और पौष
की चांदनी बेकार जाती है ।
गर आसमान से बला उतरी तो वह
गरीब के ही घर घुसती है ।।
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आज
भी वही प्रथा
है जीवित
वही
क़त्ल ओर ग़ारत, आगज़नी, नारियों
पर अमानवीय
अत्याचार, सामूहिक
रक्त पिपासा, वही पैशाचिक
वीभत्स अवतार, फिर भी
सीने पर
शान्तिदूत का
तमगा लगाए
फिरते
हैं,
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अपने कपड़ों से झाड़ दी हो मिट्टी
और मिटा दिया हो निशान गिरने का
कोई भी अपना नहीं दुनिया माया जाल
ख़्वाब कमल के देखता दिनभर सूखा ताल
जिससे मन की बात हो वह ही सबसे दूर
आओ मन फिर से पढ़ें तुलसी, मीरा, सूर
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
बुधवार, 18 दिसंबर 2024
4341.चिट्ठियां अब आती नही..
प्रातःवंदन
ठण्ड की एक अलसाई सी सुबह में
मैं बैठा हूं गंगा घाट के किनारे पर!
इन सब के बीच
नेमियों का झुण्ड हर-हर गंगे का
नाद करते हुए डुबकी लगा रहा है
उस पतितपावनी
गंगा की शान्त लेकिन
चंचल सी धारा में..!!
अज्ञात
आज की पेशकश में शामिल ..
मन से कुछ बाते
मन ! निज गहराई में पा लो,
एक विशुद्ध हँसी का कोना
बरबस नजर प्यार की डालो
बहुत हुआ अब रोना-धोना !
छायामय - -
अथक, बस बहे जा रहे हैं,
दोनों किनारे चाहते हैं
हमें निगल जाना,
प्रस्तर खण्ड
से टकराते
हुए हमारा वजूद
लिख रहा है रेत ..
✨️
जब परिचित लोगों में ज़्यादा संख्या मरे हुओं की हो जाती है
इतालो कल्विनो की मशहूर किताब 'इनविजिबल सिटीज़' बहुत समय से मेरे पास है। किताब को मैंने अपने मुताबिक इस तरह बनाया है कि इसे जब इच्छा होती है कहीं से भी पढ़ सकता हूँ। इसमें मार्को पोलों बहुत सारे ..
✨️
चिट्ठियां अब जाती नहीं
कलम से स्याही छिटक गयी , कहीं
दिलों के लफ्ज भी अब सूख गए हैं.
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह ' तृप्ति '..✍️