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बुधवार, 4 दिसंबर 2024

4327..बैरागी मन का राग..

 ।।प्रातःवंदन।।

बाज़ार बढ़ रहा है, 

"इस सड़क पर किताबों की  

एक नई दुकान खुली है और दवाओं की दो।  

ज्ञान और बीमारी का यही अनुपात है हमारे शहर में ! "

हरिशंकर परसाई 

कटु सत्य अगर यह परिवेश में घुल मिल जाय तो चिंतन का विषय है..इसके साथ ही प्रस्तुतिकरण की दिशा देते हुए...

बैरागी मन का राग

यही कोई आधी सदी पहले। मंचीय कवि-सम्मेलन के दौर में काका हाथरसी के बाद नाम आता था, बालकवि बैरागी का, मगर यह भी कोई नाम हुआ, खैर। मालवी बैरागी जी कवि के अलावे मध्यप्रदेश में मंत्री भी रहे, 1969 में। उनकी आत्म-कथा ‘मंगते से..

✨️

संतान 



चेहरे पर झुर्रियाँ

हिलते हुए दाँत 

आँखों पर चश्मा 

सर पर गिने-चुनें 

सफेद बाल ,

ख़ुद की पहचान खोकर ..

✨️

पौष माह की शीत घड़ी है

दिन है छोटा रात बड़ी है 

पौष माह की शीत घड़ी है....

मदिरा जैसी मादक रजनी 

सौंदर्य सजाती जैसी सजनी..

✨️

दर्शन नहीं हो रहस्यों की भूल भुलैया 

न हो महानता का मंत्र 

न ही हो यह पारलौकिकता का यंत्र 

और न ही उद्धार का महासूत्र 


हो यह जीवन की समझ 

हो यह कष्टों से त्राण का उपक्रम 

बने यह अभय का विधान ..

✨️

अकेली हो?

पति के गुजर जाने के बाद

दिन पहाड़ से लगते हैं

रातें हो जाती है लंबी से भी लंबी

दूर तक नजर नहीं आती

सूरज की कोई किरण

मशीन बन जाता है शरीर..

।।इति शम।।

धन्यवाद 

पम्मी सिंह ' तृप्ति '...✍️

2 टिप्‍पणियां:

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