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सोमवार, 25 नवंबर 2024

4318...साहित्य में नर्क..

 "मज़हब में बहुत

बदकारियां हैं यक़ीनन!

सियासत में बहुत

मक्कारियां हैं यक़ीनन!!

जालिब की नज़्में

बर्बर हुक्मरानों के लिए

लफ़्ज़ों में गूंथी 

चिंगारियां हैं यक़ीनन!!"

हबीब जालिब

लफ़्ज़ों में गूंथी चिंगारियां हैं यक़ीनन..सामाजिक जीवन आजकल कुछ ऐसे ही हालात से गुजर रही..तो फिर इन सभी के बीच गुजारे कुछ लिंकों के साथ..✍️

साहित्य-महोत्सव और नया वाला विमर्श

पिछले दिनों शहर में हो रहे एक ‘साहित्य-महोत्सव’ के पास से गुजरना हुआ।इस दौरान एक बड़े-से पोस्टर पर मेरी नज़र ठिठक गई।महोत्सव में अनूठा विमर्श चल रहा था,जिसका विषय था, ‘साहित्य में नर्क’।

✨️



ख़्वाब दर ख़्वाब ज़िन्दगी तलाशती है

नई मंज़िलों का ठिकाना, वो

तमाम खोल जो वक़्त

के थपेड़ों ने उतारे,

उन्हीं उतरनों

को देख,

✨️

सपना, काँच या ज़िन्दगी ...

खुद पे पाबन्दी कभी कामयाब नहीं होती

कभी कभी तोड़ने की जिद्द इतनी हावी होती है

पता नहीं चलता कौन टूटा ...

✨️

आग और हवा

उसने कहा कि आग लिखो

तुम्हारी लेखनी में आग नहीं है

सवाल तो बहुत सारे हैं लेकिन

शिकायतें और आक्षेप नहीं हैं

✨️

।।इति शम।।

धन्यवाद 

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️

2 टिप्‍पणियां:

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