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शनिवार, 5 अक्तूबर 2024

4267 रफ्ता रफ्ता सर के बाल हुए हलाल,

 सादर नमस्कार


अक्टूबर का चौथा दिवस




दिग दिगंत
सुरभित प्रेम से
दिव्य है भाव
सागर से गहरा
आकाश से व्यापक !

 
प्रीत की ज्योत
सदा बाले रखना
उर अंतर
तृप्त रहेगा मन
आलोकित जीवन !






आँखों में निज ऊर्जा की पहचान लिए
आगे बढ़ते जाने का अरमान लिए,
अधरों पर नवल विजय की मुस्कान लिए
नारी भारत की आशा की ख़ान लिए !

रोक सके ना कोई बाधा अब इसको
वह सबला है जग कहता अबला जिसको,
नहीं चाहिए अब गहनों का कारावास
उसे चाहिए खुली धरा खुला आकाश !






इश्क भी है और बेपरवाह भी हूँ,
सुकून भी है और तबाह भी हूँ,
बड़ी तबियत से क़त्ल हुआ मेरे इश्क़ का,
मैं मुज़रिम भी हूँ और गवाह भी हूँ।

मुझे काली घटा का शोर सुनना पसंद नहीं,
अगर बरसना है तो खुलकर बरसो।
बेवफ़ाई करने की इतनी जल्दी क्यों थी?
तड़पना है तो अब खुलकर तड़पो।




बेटी,
तुम फूल जैसी हो-
सुंदर, सुगंधित,
पत्ते जैसी हो-
कोमल, जीवंत,
जड़ जैसी हो-
गहरी,मज़बूत,
तने जैसी हो-
बोझ उठानेवाली,
डाली जैसी हो-
हवा में फैलनेवाली।




रफ्ता रफ्ता सर के बाल हुए हलाल,
बचे खुचे सूरजमुखी से बिखरने लगे हैं,
और पत्नी कहती है, अब आप ज्यादा निखरने लगे हैं।

सूखी फसल बालों की, बची खरपतवार,
उसे भी खिज़ाब से काला कर बंदर लगने लगे हैं,
और पत्नी कहती है, अब आप ज्यादा सुंदर लगने लगे हैं।

बस

4 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर सार्थक सूत्रों से सुसज्जित आज की हलचल ! मुझे सभी रचनाएं पसंद आईं ! मेरी रचना को भी आपने स्थान दिया आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार दिग्विजय जी ! सादर वन्दे !

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