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शनिवार, 31 अगस्त 2024

4233 ...सुगम है काशी जाना शिव को पाना

 नमस्कार


सीधे चलें रचनाओं की ओर
आज अगस्त विदा मांग रहा है
दरवाजे पर सितंबर की चोट पड़ रही है
हर आने वाले को जाना ही पड़ता है
अब देखिए रचनाएँ ...




चेहरे पे कितने भी चेहरे लगाइए,
दुनिया जो जानती वो हमसे छुपाइए।

माना; अब आपके दिल में नहीं हैं हम,
शिद्दत से अजनबीयत का रिस्ता निभाइए।






सुगम है काशी जाना
शिव को पाना
फिर भी यदि कहे कोई
दूर है काशी
हर गाँव हर शहर में
शिव बसते हैं






आज ना चलती मन की कोई
उपजे ना प्रीत का राग कोई
शांत हृदय में अनायास ही
व्याप्त हुआ विराग कोई,
चैन से रहने न देते
देह -प्राण रहे रीत मेरे!





परिवर्तन, मद, अभिमान और  गुमान की
उथल-पुथल के बाद भी
शेष रह जाए वो मौन; है संस्कृति
गर जाग उठा है संस्कृति-रक्षा का भाव
देख किसी का मात्र ढब - मज़हब अलग  






तने ने
सभी शाखाओं को
मजबूती से
थाम रखा था
भ्रम था उसे
अपने अस्तित्व पर
भूल गया था जड़ को
उपेक्षित जड़
कुंठा में रोगी बन गई
******
आज बस
सादर वंदन

3 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात
    बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं मेरी रचना को स्थान देने के लिए सहृदय आभार आदरणीय सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति मेरी रचना को स्थान देने के लिए सहृदय आभार आदरणीय सादर

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