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गुरुवार, 1 अगस्त 2024

4204...लिखें दूर की एक कौढ़ी...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय डॉ. सुशील कुमार जोशी जी की रचना से। 

सादर अभिवादन। 

गुरुवारीय अंक में पढ़िए आज की चुनिंदा रचनाएँ-

जब भी कभी याद आ जाये लिखने की कुछ लिखें कहीं

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जिंदगी एक धागे का बंडल है 

सोच में में अपनी मगरूर था,

ना जाने किस बात का गुरूर था ।

मगर तू तो मुझमें बसा रहा,

पर मुझे ना कोई इल्म ना सुबुर रहा।।


रब मेरे, मेरे जीवन के खेवन

तेरा बचपन, तेरा यौवन

तेरा हर पल, तेरी खुशियां

हंसते हंसते लेंगे ये गम।


 

सजल मेघ सावन के कारे

यह धरती यह नीला अंबर

प्राणवान है तुमसे ईश्वर 

तुम अपना आवास बनाते

दीन-दुखी प्राणी के अंदर।

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अकेला

स्वयं के साथ लड़े जाने वाला युद्ध 
नहीं!वृक्ष की छाया नहीं थी वह 
वह एक भ्रम था जिसे 
मैं आजीवन पोषित करता रहा 
नहीं! वह भ्रम भी नहीं था 
वह मेरे 
मन के द्वारा भावों का बुना जाल था 

मकड़ जाल
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गरीबी में डॉक्टरी : कहानी (भाग-3) एक और मांझी की डॉक्टर बनने की संघर्ष गाथा
एक दिन वह भीमनगर नाम की झुग्गी-झोपड़ी बस्ती में गया और वहां एक झोपड़ी देख आया। जिसका किराया 700 रूपए महीना था। वह कमरा क्या था एक ऐसी कच्ची झोपड़ी थी, जो चारों से पन्नियों से बंधी थी। दरवाजे के नाम पर उस पर एक पन्नी लटका रखी थी। उस समय वह तीसरे वर्ष की तैयारी कर रहा था। पैसों की कोई व्यवस्था न होने से उसने एक किराने की दुकान में काम किया ताकि वह कमरे का किराया और खाने-पीने का खर्चा निकाल सके।*****फिर मिलेंगे। रवीन्द्र सिंह यादव 









5 टिप्‍पणियां:

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