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सोमवार, 15 जुलाई 2024

4187..टाले न बान यह कभी टले, यह जान जाए तो ख़ूब जाए ।

 सादर अभिवादन

सुख का दिन डूबे डूबे जाए ।
तुमसे न सहज मन ऊब जाए ।

खुल जाए न मिली गाँठ मन की,
लुट जाए न उठी राशि धन की,
धुल जाए न आन शुभानन की,
सारा जग रूठे रूठ जाए ।

उलटी गति सीधी हो न भले,
प्रति जन की दाल गले न गले,
टाले न बान यह कभी टले,
यह जान जाए तो ख़ूब जाए ।
-निराला जी

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मदद करने का मन होते हुये भी नहीं जाती क्योंकि नन्ही चिड़िया घबरा के उड़ जाती थी लगभग दस-बारह दिन बाद घोंसले में झाँका तो देखा वहाँ ज़िंदगी ने कदम रख दिये थे, अत्यंत छोटे मांस के लोथड़े से बच्चे नज़र आये । मैं दूर से देखती मादा और नर चिड़िया बारी-बारी से चोंच में छोटे कीट, पतंगे, इल्ली आदि दबा कर लाते और भूखे बच्चों के खुले मुँह में डाल देते




भरता नहीं मन,
कुछ पल की बातों में,
पास बैठे रहो यूं ही,
पल पल दिन रातों में
मिले इन पलों को
अब यूं न ग़वाओ।
कैसे कह दूं कि
तुम चले जाओ।




मैं पीड़ा का राजकुँवर हूं
तुम शहज़ादी रूप नगर की

हो भी गया प्यार हम में तो
बोलो मिलन कहां पर होगा ?





तुम भी वहाँ मौजूद नहीं थे
मेरा तो खैर सवाल ही नहीं उठता
पर हमारे ख्याल वहाँ मौजूद थे
पर हमने कभी ज़िरह की
ये सवाल ही नहीं उठता
हमारे मौन को शब्द मिले थे




…..और कुछ नहीं
वे स्वीकार्य-सीमा की मेड़ पर खड़े
गहरे स्पर्श करते अंकुरित भाव थे
न जाने कब बरसात का पानी पी कर
अस्वीकार्य हो गए
आह! ज़िंदगी लानत है तुझ पर
भुला देना  खेल तो नहीं

बस
कल सखी श्वेता से मिलिएगा
सादर वंदन

3 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय मेम ,
    मेरी लिखी रचना को "पांच लिंकों के आनन्द में" के इस गरिमामय में मंच में स्थान देने के लिए बहुत धन्यवाद एवं आभार ।
    इस अंक में संकलित सभी रचनाएँ बहुत ही उम्दा है सभी आदरणीय को बहुत बधाइयाँ ! !
    सादर ।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर संकलन।
    देरी के लिए माफ़ी चाहती हूँ।
    रचना को स्थान देने हेतु हार्दिक आभार।
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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