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रविवार, 19 मई 2024

4131 ...दरअसल, लेडीज़ लापता है

 सादर अभिवादन

शौक पूरे कर लो
ज़िंदगी तो खुद ही
पूरी हो जाएगी एक दिन

कुछ रचनाएं



दरअसल,
लेडीज़ लापता है
अपने ही घर में
अपने ही समाज में
अपने ही लोगों के बीच




आदमीयत  को भुलाये बैठे
बदले अपने सभी ईमान हैं लोग ।

शान ओ शौकत है वो उनकी झूठी
बन गए शहर की जो जान हैं लोग ।






‘स्त्री दुर्बल है और दुर्बल ही रहेगी’
तुम्हारे दरवाजे पर पसरी भीड़ का स्लोगन
भले ही उच्च स्वर में न हो
पर परिस्थितियों में प्रमाणबद्ध रहेगा
मार खाकर डंके की चोट पर दण्ड दो
अथवा क्षमा
स्त्री ही रहोगी
संभवतः इसीलिए नियति ने तुम्हारे वास्ते
बस एक दिवस बनाया है





गिर  जाने का  डर लेकर
चलने  की  प्रत्याशा छोड़।
अपने  पग  का  मान रहे
औरों  की सबआशा छोड़।
चाहे जितना बांधो अपनी
मुट्ठी  से  रेत  फिसलनी है,



बाहर खुला-खुला मौसम है
भीतर से साँकल है
यह पतझड़ की प्रवंचना है
या वसंत का छल है

आज बस
कल भी मैं ही आऊँगी
सादर वंदन

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