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शनिवार, 30 मार्च 2024

4081 ...मैं बहारों के घर कल गया , आँधियों को पता चल गया


सादर अभिवादन
लोग गाने गा रहे हैं
और प्रतीक्षा कर रहे हैं
एक फिल्मी गीत सुनिए
आइए देखें कुछ रचनाएं ....


संतरे वाली गोली ...

उन दिनों संतरे वाली टॉफी भी मेरी पसंदीदा टॉफियों में से एक हुआ करती थी। संतरे की फाँक के आकार में ये टॉफियाँ आती थी और स्वाद भी सूखे संतरे जैसा ही होता था। छोटे छोटे पैकेट में ये आती थी जिसे हम लोग अक्सर बस में सफर के दौरान लेते थे। अक्सर बस अड्डे में खड़ी बसों में ही इन्हें बेचा भी जाता था। इस कारण इस टॉफी को अक्सर यात्रा करने के दौरान ही लिया जाता था। इसका और उपयोग उन दिनों लोग करते थे। पहाड़ के रास्ते घुमावदार होते हैं। कई बार इन घुमावदार रास्तों में जब बस चलती है तो यात्रियों को उल्टी इत्यादि होने लगती थी। कई लोग इन टॉफियों के पैकेट रख लेते थे और एक एक टॉफी चूसते हुए जाते थे ताकि बस में सफर के दौरान वो जी मिचलाये तो उल्टी न करें।






मायाविनी रात्रि में खोजता हूँ व्यर्थ का अज्ञातवास,
मोहक जुगनू कभी हथेली पर और कभी अंतर्ध्यान,

अनगिनत प्रयास फिर भी आँचल में शून्य निवास,
विश्व भ्रमण के बाद भी, स्वयं से व्यक्ति है अनजान,




मैं बहारों के घर कल गया ,
आँधियों को पता चल गया ।   

ये आख़री रात है कह कर ,
रोज अँधेरा मुझे छल गया ।




यही भावनाएं उलझीं
कवि की रचना में  
है इतनी शक्तिशाली
उलझी शब्द शैली
उसी में रही उलझीं
हमारे मन की भावनाएं




मनुष्य ने
ओढ़ा हुआ है
मनुष्यता का लबादा।
उतारकर फेंक देता है,
मौका मिलते ही
और बन जाता है
जानवर





अपना मजा

और
अपना

एक
नशा होता है

किसी की
दो चार लोग
सुन देते हैं

किसी
के लिये
मजमा
लगा होता है



आज बस. ...
इन्तेजार ही करती रही
शायद दीदी ने अगले सप्ताह का
प्लान बनाया है
सादर वंदन

3 टिप्‍पणियां:

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