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शुक्रवार, 15 दिसंबर 2023

3975....वृक्ष सिखाता जीवन दर्शन

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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जीवन भी अबूझ पहेली सी महसूस होती है  किसी पल ऐसा महसूस होता है कुछ भी सहेजने की,समेटने की जरूरत नहीं। न सेहत, न रिश्ते, न पैसा या कुछ और...
फिर अनायास एक समम ऐसा आता है जब सब कुछ खुद ब खुद सहेज लिया जाता है।
एक उम्र में सबकुछ सहेजना खासा संतुष्ट करता है, उपलब्धि-सा लगता है,
और सब पाकर भी कभी-कभी कुछ भी सहेजे जाने की,,पाने की इच्छा और ऊर्जा दोनों ही नहीं बचती।
विरक्ति का ऐसा भाव जब महसूस होता है
जो चला गया, गुजर गया, रीत गया,छूट गया  दरअसल वो आपका, आपके लिए था ही नहीं। 
परिवर्तन तो निरंतर हो रहा है पर मन स्वीकार नहीं कर पाता है और परिवर्तन को स्वीकार न कर पाने के  दुःख में मनुष्य बहुत सारा बेशकीमती समय गँवा देता हैं।
 प्रतिपल हो रहे परिवर्तन को महसूस कर, स्वीकार करना ही निराशा और हताशा के भँवर से बाहर खींचकर
जीवन  को सुख और संतोष से भर सकता है।
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आइये अब आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-


हे  जल !
तुम्हें बहते ही रहना है, जीवन  कभी नहीं रुकता 
जब तक कि आखिरी चाँद छिप  न जाए और थम जाए ज्वार  ! 
या ढल जाए सूरज पश्चिम में कहीं हमेशा के लिए 
और हृदय व्यथित होकर रोने लगे  समुद्र की भांति 
समुद्र तो रोता  है जीवन भर अकेले 
जैसे रोती है नदी मेरे पहलू में रात भर ! 


समय बीतता गया। धरती के देश आपस में लड़ते-भिड़ते रहे। उनकी आपसी दुश्मनी से वातावरण विषाक्त होता रहा। एक दूसरे को नीचा दिखाने में हजारों लाखों जाने जाती रहीं। पर पौधे ने अपना सफर जारी रखा। विज्ञान तरक्की की राह दिखाता रहा। इंसान अंतरिक्ष की सीमायें लांघने लगा। पौधा भी धीरे धीरे जमीन में अपनी पकड़ और अच्छी तरह जमाते हुए, संसार के अच्छे-बुरे बदलाव देखते हुए, शुरुआती खतरों से खुद को बचाते हुए अपनी मंजिल की ओर अग्रसर होता रहा।

तवारीख़ धुंधली पड़ने लगी तो ।
इमारत ने ढहना सीख लिया है 
मानिंदे मोती रूह पिरोये आसूं 
उसने ये गहना सीख लिया है।।


बुढ़ापा क्या है
"पुराने एप का नया लोगो”

•कर्म क्या हैं
“ट्रैश”

•मृत्यु क्या है
“ट्रैश का ऑटो डिलीट”


इस उम्मींद में थे कि-भगवान उनके लिए कुछ जरूर करेंगे। कर्मानन्द चने खा रहा था तो बीच-बीच में कुछ कंकड़ आ जाता वो उसे निकल कर भाग्यनंद की तरफ फेंक देता। भाग्यनंद पहले तो झल्लाया फिर उन कंकड़ों को ये कहते हुए इकठ्ठा करने लगा कि-शायद ईश्वर ने उसके भाग्य में आज यही दिया है। खैर, सुबह हुई ज्ञानिन्द आये तो कर्मानन्द ने खुश होते हुए रात का अपना करनामा कह सुनाया। ज्ञानिनंद ने भाग्यनंद से पूछा "तुमने क्या किया " तो वो बोला मैंने ये मान लिया कि-भगवान ने मेरे भाग्य में भूखा  रहना ही लिखा था और मैं कर्मानन्द के फेंके पथ्थरों को चुन-चुनकर अपने अगौछे में बांधता रहा। ये कहते हुए उसने अपने अंगोछे की गांठ खोली तो उसकी आँखे चौंधिया गई वो जिसे पथ्थर समझकर इकठ्ठा कर रहा था वो तो सारे हीरे निकलें। 


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आज के लिए इतने ही
मिलते हैं अगले अंक में
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6 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन का दर्शन
    जल है तो कल भी होगा
    शानदार अंक
    सादर

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  2. वाह! श्वेता ,खूबसूरत भूमिका । सुंदर प्रस्तुतीकरण।

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रतिपल हो रहे परिवर्तन को महसूस कर, स्वीकार करना ही निराशा और हताशा के भँवर से बाहर खींचकर
    जीवन को सुख और संतोष से भर सकता है।
    बहुत ही सारगर्भित भूमिका के साथ लाजवाब प्रस्तुति सभी लिंक बेहद उम्दा एवं पठनीय ।

    जवाब देंहटाएं
  4. "प्रतिपल हो रहे परिवर्तन को महसूस कर, स्वीकार करना ही निराशा और हताशा के भँवर से बाहर खींचकर
    जीवन को सुख और संतोष से भर सकता है।"
    सत्य वचन,बहुत ही सुंदर भूमिका के साथ बेहतरीन प्रस्तुति,मेरी रचना को भी स्थान देने के लिए हृदयतल से आभार श्वेता जी

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही बढियां प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत बहुत आभार आपका! इस मंच से जुड़कर सदैव ही प्रसन्नता होती है.

    जवाब देंहटाएं

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