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मंगलवार, 21 नवंबर 2023

3951 ..आग के दरिया पर नहीं बनते लकड़ी के पुल

 सादर अभिवादन

सोच रहे थे हम
पूरा नवंबर निकल गया
दशहरा -दिवाली भी बीत गई
मुख्य उत्सव छठ भी आज
लौट रहा है थके पांव
फेसबुक में भी आज-कल
दीपावली और छठ की बहार है
सोचे हम कुछ इन- सबसे अलग
कुछ नया पढ़ा जाए..
आप भी पढ़िए....



ब्रासो से सिक्के चमकाने का काम हमें सौंपा जाता था ! मम्मी तरह-तरह के पकवान बनाती थीं जिन्हें हम लोग बड़े ही शौक से खाते थे ! लक्ष्मी पूजन के बाद पटाखे चलाये जाते थे ! बाबूजी हमेशा हम लोगों के साथ ही रहते थे और हम बच्चों की सुरक्षा के प्रति पूरी तरह से सावधान और सतर्क रहते थे ! वे पानी से भरी दो बाल्टी हमेशा पास में रखवा लेते थे ! आज भी उमंग और उत्साह से भरे वो दिन बहुत याद आते हैं ! जैसा जोश, और उल्लास तब अनुभव होता था अब नहीं होता !




कुछ तथाकथित नरियाँ
अपने मुलायम उंगलियों के स्पर्श से
कामयाबी के कंधे छू रही हैं

वहीं कुछ पुरुष वक्र दृष्टि से
आधी आबादी की बुद्धि की तरफ कम
देह की और अधिक आकर्षित होता जा रहा है




आग के दरिया पर
नहीं बनते लकड़ी के पुल
पर पेट के तंदूर पर
तनी रहती है
काग़ज़ी चमड़ी




सोच लो कम-से-कम है क्या क़ीमत,
वो तो कोड़ी का मोल देता है.


टू-द-पॉइंट जवाब दूँ कैसे,
प्रश्न जब गोल-गोल देता है.




भग्न हृदय की भग्न भीती पर उग आई जो कोंपलें।
जूनी खुशियों के चिर परिचित गीत तो गुनगुनाएँगी।

नाव टूटी ही सही किनारे बंधी हो चाहे निष्प्राण सी।
फिर भी सरि की चंचल लहरें तो आकर टकराएँगी।


आज बस
कल पम्मी सखी से मिलिएगा
सादर

2 टिप्‍पणियां:

  1. मस्त हलचल ..माँ आभार मेरी ग़ज़ल को शामिल करने के लिए …

    जवाब देंहटाएं
  2. सुन्दर सूत्रों से सुसज्जित हलचल ! मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !

    जवाब देंहटाएं

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