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गुरुवार, 4 मई 2023

3747...खुले दिमाग मरीचिका होते हैं...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय डॉ.सुशील कुमार जोशी जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में आज पढ़िए कुछ चुनिंदा रचनाएँ-

नीति के दोहे मुक्तक

गुंडे    दबंग    बढ़   रहे, राजनीति के साथ।

क्रिमिनल भी हैं जुड़ रहे, लिये  पोटली हाथ।।2।।

बस यूँ ही

इधर मुक्ति पालो उधर बंधुआ हो लेती है सोच
सबको पता होता है

खुले दिमाग मरीचिका होते हैं
कोई कहता नहीं है मगर गुलाम होता है

अंदाज़ ए ख़ुदा हाफ़िज़--

इस 
किनाराकशी में हैं न जाने ख़म 
कितने, कभी डूबता संग 
ए साहिल ये ज़िन्दगी,

घर-बार मांगने गए

पढ़कर अखबार की सुर्खियों में छपा बयान

बागबां बेरहम पतझडों से बहार मांगने गए।

सरगोशियां थीं सच को सच ही कहा जायेगा

झूठ की मंडियां सदका सदाचार मांगने गए।

चलते-चलते पढ़िए आपके मन-मस्तिष्क को झकझोर देने वाली एक लघुकथा-

वट का शास्त्र

आकाश में उड़ते बाज की माता ने बिना पँख खुले बच्चे को आकाश के बहुत ऊँचाई पर ले जाकर छोड़ देने की क्रिया की होगी न...! उस सगी माँ को किसी ने सौतेली पुकारा होगा क्या...!

आपका कोख जाया।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


6 टिप्‍पणियां:

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