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बुधवार, 26 अप्रैल 2023

3739 ...मन में विश्वास ऐसा जगा धीरे - धीरे

 सादर नमस्कार

आज से दो सप्ताह को लिए  
पम्मी बहन का अवकाश है,
सो मैं हूँ न
.....
मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
-गुलज़ार

रचनाओं की ओर सीधे - सीधे..



हवा मन - मुआफिक सी बहने लगी है
मन में विश्वास ऐसा जगा धीरे -धीरे ।

अनावृत हुआ सच भले देर से ही
लगा टूटने अब भरम धीरे-धीरे ।





पाँव रख
हौले से
बिखर गई गुलशन में
रक्स-ए-बहाराँ बन के….




पापा मत निर्दयी बनो तुम,गुड़िया मैं हूँ तुम्हारी।
घर आँगन को महकायेगी, मेरी भी किलकारी ।।
जीवन दे दो तुम मुझको तो,  सदा रहूंगी आभारी ।
मत मारो तुम मुझे कोख में, मैं ही हूँ सृष्टि अधारी ।।




मान मिले
तो ..
अपने आप ही
बना लेती हैं
मर्यादाओं के दायरे
बंधनों में ही ढूँढती हैं
मुक्ति..




समय जल सम प्रवाहित
लहर लहर पल पल निरंतर ।
चारों दिशाएं उठीं जाग
सस्वर करतीं अभिवादन ।

आज के लिए बस
सादर

5 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर अंक
    गुलज़ार साहब की रचना
    याद दिलाती है फिल्म आनन्द की
    शायद ये डाक्टर अभिषेक बेनर्जी के लिए
    लिखी गई होगी
    आभार...
    सादर.…

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर पुष्प गुच्छ सी प्रस्तुति में सम्मिलित करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार, सादर …।

    जवाब देंहटाएं
  3. हर बार की तरह , इस बार भी , विश्वास की पुनरावृत्ति है पांच लिंकों की हलचल. संवेदनशील रचनाओं की भावांजलि में चन्दन वंदन भी गूँथने के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय.

    जवाब देंहटाएं
  4. उत्कृष्ट लिंकों से सजी लाजवाब प्रस्तुति..
    मेरी रचना को भी यहाँ स्थान देने हेतु हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आपका । सभी रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं ।

    जवाब देंहटाएं

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