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बुधवार, 19 अक्तूबर 2022

3551.. सूरज कभी ढलता नहीं..

 

।।उषा स्वस्ति।।

हम हैं दीप
हम धारा नहीं है
स्थिर समर्पण है हमारा
हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के
किंतु हम बहते नहीं हैं
क्योंकि बहना रेत होना है
हम रहेंगे तो रहेंगे ही  नहीं।
अज्ञेय
साकारात्मक आशा की रश्मियों संग विचारों की नवीनता के साथ आइए अब नज़र डालें चुनिंदा लिंकों पर...✍️

सुरूर उनका जो मुझ पर चढ़ा नहीं होता ,

ख़ुदा क़सम कि मैं खुद से जुदा नहीं होता ।       

 

हमारे इश्क़ में शायद कमी रही होगी-


सितमशिआर सनम क्यों खफा नहीं होता ।        

💮💮

तुम्हारा वस्ल ही मरहम है


बड़ा ही वीरान मौसम है 
आँख भी हमारी नम है। 

कभी मिलने चले आओ 
हर जानिब तेरा ही ग़म है। 



बाबिया, एक शाकाहारी मगरमच्छ

मंदिर के पदाधिकारियों के अनुसार वर्षों पहले भी इस झील में एक मगरमच्छ रहता था।  जिसे बाबिया कह कर पुकारा जाता था। 1942 में उसे एक ब्रिटिश अधिकारी मार कर अपने साथ ले गया था ! पर कुछ ही दिनों बाद उसकी सांप के काटने से मौत हो..

💮💮
मुझे मालूम है दिगंत की सत्यता, कभी
नहीं मिलते पृथ्वी और आकाश, वो
जो एक हल्की सी रेखा उभरती
है सुदूर अँधेरे और उजाले
के दरमियां, बस वही..
💮💮

वो मेरी दहलीज़ पे चढ़ता भी नहीं है


कहते हैं लोग मेरे सीने में मौजूद है

मेरी मर्जी से मगर ये धड़कता भी नहीं है


मैं भी दिन और रात का पाबंद हूँ

मुझसे तो सूरज कभी ढलता भी नहीं है..

💮💮

।।इति शम।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह'तृप्ति'..✍️



5 टिप्‍पणियां:

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