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गुरुवार, 18 अगस्त 2022

3489...बंद पलकों में ही न जाने कितने जीवन रीत गये...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया रंजू भाटिया जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के लिंक्स के साथ हाज़िर हूँ-

तुम कौन

बुद्धि न आई...!

हाँ तो नहीं आई, क्या करें तो ?

ये मेरी जिंदगी, तुम कौन ?

सबकी पुड़िया बना रखो न अपनी जेब में

और हटो एक तरफ, आने दो जरा

कुछ ताजी हवा , कुछ खुशबू

सतरंगी किरणें, कुछ उजास

भरने दो लम्बी साँस…!

डी एच लारेंस की कविता : सेल्फ पिटी का अनुवाद

एक छोटी चिड़िया
किसी बर्फीली रात में शीत के प्रकोप से मर जाती है
बिना कभी अपने आप पर तरस खाये । 

भारत के गाँव

ऐसा सुंदर गाँव हमारा.........

हर घर में गौशाले होते,सबको मिलता है दूध दही।

गोबर से लिपते गलियांँ आँगन, पावन हो जाती है मही।

‌हर गांँव वृंदावन जैसा लगता है सदा उजियारा।

ऐसा सुंदर गाँव हमारा........

मीरा को राधा कर दो

यूँ ही पूजा करते करते

कितने ही युग बीत गये

बंद पलकों में ही न जाने

कितने जीवन रीत गये

खोलो नयन अब अपने कान्हा

पलकों में तुम को भरना है

इस समाज को बदलना नहीं, फूंकना पड़ेगा...

अजीब बात है कि हमारे समाज ने इस शादी नाम की संस्था का कोई दूसरा विकल्प नहीं ढूँढा/स्वीकारा जबकि बहुतेरी दुनिया में शादी धीरे-धीरे बीते जमाने की बात होती जा रही है. जाने क्यों हमें लगता है कि इसके बिना पूरा समाज बिखर जाएगा. क्या बिन ब्याहे हम हेडलेस चिकन की तरह इधर-उधर घूम रहे होंगे? क्यों करते हैं हम शादी?

 *****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


7 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात
    बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छी रचनाओं वाला अंक

    जवाब देंहटाएं
  3. सुजाता प्रिय समृद्धि

    जवाब देंहटाएं

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