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शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

3454. ....जीने का सलीका

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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रद्दी में बिकते पुस्तकों के ढेर
पायदान होते बुद्धिजीवी
विचारों के अवमूल्यन के
इस दौर में 
सोचती हूँ
पात्र हूँ या दर्शक 
मैं किस भूमिका में हूँ।

आज की रचनाएँ-

सृष्टि का कण-कण परिवर्तनशील है,मनुष्य 
की मनोदशा भला कैसे अछूती रह सकती है।
प्रेम भी परिस्थितियों के अनुसार
 बदल लेता है अपना स्वरूप और कभी सही तो कभी गलत 
होता है लगाया गया

बावजूद इन सब के
कल्पना का विकल्प बना यथार्थ
भविष्य का विकल्प बनी नियति
और आह में आती रही घुलकर
एक हितकामना

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जीवन का गणित किसी पहेली से कम
तो नहीं शायद, विचारों का ताना-बाना
प्रायः अनेक धाराओं में बहकर
अंततः एकाकार हो जाती है मानो संगम हो

हवाएँ चिंघाड़ कर धकेलती रही टफण्ड ग्लास

और वह भी टिका रहा स्थितप्रज्ञ सा…,


जीने का सलीका कभी-कभी यूँ भी दिखता है ।



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उम्मीदें दर्द की वजह बन जाती हैं
ख़्वाहिशें गिर टूटती हैं जब, मन के
फफोलों की वजह बन जाती हैं

पहुंचा वहां तो
खूब स्वागत हुआ
मुस्कुराहटों का भी 
अतिशय जमघट हुआ
मगर तालियों में
उनकी
ना वो बात थी


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आंधियाँ एकदिन थमेंगी जरूर
शोक मनाने के पूर्व वृक्ष मुस्कुरायेंगे
कुवृत्तियाँ थककर नष्ट हो जायेगी
अंकुरित बीज मनुष्यता के खिलखिलायेंगे
मूल्य नैतिकता का यथार्थ में होगा वरण 
नहीं देखेगी धरा फिर


खींचते ये रेख कैसी
टूटते सब प्रेम बंध
मानवी मृत हो चली अब
शीश चढ़ बैठे हैं अंध
नीतियाँ धुसरित हुईं
मूल्य का होता हरण


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संस्मरण स्मृतियों को समृद्ध करते हैं।
स्वप्नों की उंगली थामे स्मृतियाँ इकट्ठा करता जीवन
जमा होता जाता है किसी संदूक में-

बर्फ का ऐसा वैभव पहली बार सामने था . दूर तक केवल प्रकृति का धवल हास ..मानो किसी ने सफेद नरम कालीन बिछा दिया हो . और.. हिमपात (स्नो फॉलिंग).. अहा.. धवल फुहारों में खड़े ,चेहरे पर कपडों पर हिमकणों स्पर्श एक अपूर्व अनुभव था .ऐसी फुहारें जो भिगो नहीं रहीं थीं . जैसे किसी ने रेशा रेशा कपास बिखराकर उड़ा दिया हो . पैरो के नीचे बर्फ का ढेर था ..शिलाखण्ड जैसी कठोर नहीं , रेत जैसी भुरभुरी गीली बर्फ जिसके गोले बनाकर लोग एक दूसरे पर फेंक रहे थे .स्कीइंग कर रहे थे . हवा चलने पर हिमकण रेत की तरह उड़ रहे थे, ..जैसे हम बर्फ के रेगिस्तान में थे ..दूर दूर तक ठंडा सफेद रेगिस्तान जिसमें पाँव मन मन
 भारी होरहे थे पर उत्साह उतना ही ऊर्जा दे रहा था . हम जी भरकर फिसले , दौड़े , बर्फ के गोले बनाकर एक दूसरे पर
 फेंके ..
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आज के लिए इतना ही
कल का विशेष अंक लेकर आ रही हैं
प्रिय विभा दी।











10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब..
    सोचती हूँ मैं
    विचारों के अवमूल्यन के
    इस दौर में 
    पात्र हूँ या दर्शक
    शानदार चयन
    आभार सखी
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. उम्दा लिंक्स चयन
    बेजोड़ प्रस्तुति

    आपके पोस्ट लगने के बाद अपने समय का ज्यादा एहसास होता है.. मुट्ठी से फिसले रेत सा समय..

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन सूत्रों से सजी बेहतरीन प्रस्तुति में मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए हार्दिक आभार श्वेता जी ! सादर सस्नेह ..,

    जवाब देंहटाएं
  4. रद्दी में बिकते पुस्तकों के ढेर
    पायदान होते बुद्धिजीवी
    विचारों के अवमूल्यन के
    इस दौर में
    सोचती हूँ
    पात्र हूँ या दर्शक
    मैं किस भूमिका में हूँ।.. चिंतनपूर्ण सार्थक भूमिका के साथ पठनीय सूत्रों का चयन । बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर रचना संकलन सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं मेरी रचना को चयनित करने के लिए सहृदय आभार सादर

    जवाब देंहटाएं
  6. श्वेता जी , सुन्दर चार लिंक देखे . रचनाओं का चयन उत्तम है . पाँचवी मेरी रचना है , उसे शामिल करने का आभार

    जवाब देंहटाएं
  7. सभी लिंक बहुत शानदार । सिडनी की सैर के लिए आभार ।
    आज कल विचारों के अवमूल्यन की बात कोई नहीं सोचता । यूँ सब पतन की ही ओर हैं ।।। बेहतरीन प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  8. उत्कृष्ट लिंको से सजी लाजवाब हलचल प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं

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