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गुरुवार, 19 मई 2022

3398...गंगा-जमुना हैं कि बस.., बह निकली...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया मीना भारद्वाज जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के साथ हाज़िर हूँ।

अभिवादन के इंतजार में

तभी तो वह

कागज में लिखे

शब्दों को पढ़ पाएगी

फिर

शब्दों के अर्थों को

लपेटकर चुन्नी में

हंसती हुई

दौड़कर छत से उतर आएगी

त्रिवेणी

किर्चें चुभ गई काँच सरीखी

और लहू की बूँद भी नहीं छलकी..,

गंगा-जमुना हैं कि बस.., बह निकली ॥

 

कविता | वस्त्र के भीतर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नेशनल एक्सप्रेस

आवरण है वस्त्र तो

जिसे पड़ता है बुनना

वरना

हर देह रहती है नग्न

अपने वस्त्र के भीतर

वस्त्र चाहे रेशम का हो

या सूत का,

वस्त्र मिलता है

दुनिया में आकर

और छूट जाता है यहीं

 माँ तुम यहीं हो

उस टकराते पानी को 
ध्यान से सुनती हूँ 
उस आवाज़ में मुझे 
अहसास होता है की 
माँ तुम यहीं हो

एक लघु कथा:

शाम होने लगी थी, लेकिन उसकी स्पीड कम नही हुई। ऐसा लगने लगा था जैसे आज तो कमरे में यही सोएगा। पर अब हमने कमर कस ली और डट कर मुकाबला करनी की सोची। एक झाड़ू हाथ मे लेकर उसे हवा में घुमाना शुरू किया ताकि उसका ध्यान भंग हो। लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ। अब तो हम भी कमरे में ही घुस गए और उस पर निशाना साधने लगे। इस बीच श्रीमती जी को याद आया कि लोग इस पर तौलिया फेंककर पकड़ लेते हैं। लेकिन वह तरीका भी कारगर साबित नहीं हुआ।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर सूत्रों से सजा संकलन ।संकलन में मेरे सृजन को मान देने के लिए सादर आभार
    आदरणीय रवीन्द्र सिंह जी ।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुंदर सार्थक अंक।
    बहुत बहुत शुभकामनाएं आदरणीय सर!

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर संकलन
    सभी रचनाकारों को बधाई
    आपको साधुवाद

    मुझे सम्मलित करने का आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर संकलन मेरी रचना को पाँच लिंकों का आनंद में स्थान देने पर तहेदिल से शुक्रिया आपका ।

    जवाब देंहटाएं

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