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रविवार, 24 अप्रैल 2022

3373.....दो में से क्या तुम्हें चाहिए कलम या कि तलवार 


जय मां हाटेशवरी......
दो में से क्या तुम्हें चाहिए कलम या कि तलवार 
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान
कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली, 
दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली 
पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे,
और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे
एक भेद है और वहां निर्भय होते नर -नारी,
कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी
जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले,
बादल में बिजली होती, होते दिमाग में गोले
जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार,
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार

'सच' को कविता में पिरोने वाले 
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की आज 48वीं पुण्यतिथी है. 
उनका निधन 24 अप्रैल, 1974 को हुआ था. 
उन्होंने हिंदी साहित्य में न
सिर्फ वीर रस के काव्य को एक नयी ऊंचाई दी, बल्कि अपनी 
रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन किया.
.....कोटी कोटी नमन......हिंदी साहित्य के इस दिनकर को.....
अब पढ़िये.....मेरी पसंद.....



तुम बनो मनुष्यों के राजा, मैं वन पशु सम्राट बनूँगा
हर्षित होकर अब लौटो तुम, मैं भी ख़ुशी ख़ुशी जाऊँगा
सूर्य प्रभा को कर तिरोहित, छत्र तुम्हें शीतल छाया दे
मैं भी छाया ग्रहण करूँगा, नीचे इन जंगली वृक्षों के
अतुलित बुद्धि वाले शत्रुघ्न, सेवा में सदा रहें तुम्हारी
लक्ष्मण मेरे सदा सहायक,  चारों रक्षा करें सत्य की


नादानी कम होने लगी
समझदारी बढ़ने लगी
परिस्थिति बदलने लगी
जब अपने हिस्से में भविष्य कम बचा है
भावित का डर बढ़ रहा है
घर बचा सकता है डर से
मकानों के बीच अगर
बचा सके हम घर
बची रहे पृथ्वी बचा रहे घर


करो हमेशा यत्न से, धरती का सिंगार।
शस्य-श्यामला भूमि में, बढ़ा प्रदूषण आज।
कुदरत से खिलवाड़ अब, करने लगा समाज।
अब तो मुझे बचाइए, कहती धरा पुकार।
पेड़ लगाकर कीजिए, मेरा कुछ शृंगार।।
जागरूक होगा नहीं, जब तक हर इंसान।
हरा-भरा तब तक कहाँ, भू का हो परिधान।


राह वही जाती है अब मयखानों को !
सोच समझकर लफ्जों को फेंका करिए,
तीर नहीं आते फिर लौट कमानों को !
गुलशन के आजू - बाजू आबादी है,
कौन बसाया करता है वीरानों को  !


भूलने की कोशिश करो
पर किसे … ?
यादों से बाहर निकलो,
पर किसकी ...?

 
छोड़ परखना रहने दे
सच्चा होना काफी है
गंगा जमना रहने दे
सच कहने की हिम्मत कर
यूँ दिल रखना रहने दे

हरी भरी धरती रहे, मिल कर करें प्रयास।।
वसुधा ने जो भी दिया, उसका नहीं विकल्प।
धरा दिवस पर कीजिए, संचय का संकल्प।।
धन्यवाद।








9 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन अंक
    'सच' को कविता में पिरोने वाले
    स्मृतिशेष दिनकर जी को नमन
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. पठनीय सूत्रों का चयन ,
    सुंदर प्रस्तुति !

    जवाब देंहटाएं
  3. सुंदर, पठनीय लिंक्स। मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  4. भावभीनी हलचल … आभार मेरी रचना को शामिल किया आपने

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत बेहतरीन प्रस्तुति।
    मेरी पोस्ट के लिंक का चयन करने के लिए
    आपका आभार आदरणीय कुलदीप ठाकुर जी।

    जवाब देंहटाएं

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