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शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

3350....पुल टूट रहे हैं...

शुक्रवारीय अंक में 
आप सभी का हार्दिक अभिनंदन।

कौन नहीं है मूर्ख जगत में
इस प्रश्न पर करें विचार,
बुद्धू-बुद्धि के हेर-फेर से
चलता जग का व्यापार।

 युद्ध की भयावहता को तो उन परिस्थितियों को भोगने वालों से बेहतर कोई नहीं समझ सकता है।
चाहे कोई कुछ भी लिख ले, बोल ले,विश्लेषण कर लें
विश्लेषक बन जाए किंतु उनकी पीड़ा का काल्पनिक
चित्रांकन, संवेदनाओं के ज्वार से उत्पन्न अनेक प्रश्न मन झकझोर जाते हैं।
अपनी मातृभूमि के प्रति कर्तव्यों को पूरा करने में मनोभावों से जूझते सैनिक क्या सोचते होंगे?

बिना जाने कि वे जिन्हें मारना चाहते हैं
उनकी मृत्यु से उन्हें क्या मिलेगा
जो लोग मोर्चे पर लड़ रहे हैं
उनके परिवार, उनके बच्चे, उनके रिश्तेदार
मोर्चे से दूर रहकर भी लड़ रहे हैं युद्ध
उन तक पहुंचने वाली सड़कें 
ध्वस्त हो रही हैं, पुल टूट रहे हैं
और इसी के साथ टूट रही हैं उनके 
प्रियजनों की वापसी की उम्मीदें


प्रकृति में तन-मन के समस्त पीड़ादायक
 व्याधियों का नाश कर शीतलता प्रदान करने का अद्भुत गुण है चलिए महसूस करते हैं-

मधुमास लगा अब फूल खिले, सब ओर चली मृदु गंध बयार।

हर डाल सजे नवपल्लव जो,

पहने वन देव सुशोभित हार।

अँकवार लिए तृण दूब कुशा, धरणी पहने चुनरी कचनार।।

मन है कुछ चंचल देख रहा, निखरी वसुधा बहती मधुधार।।



जीवन-यात्रा में कर्म के अनेक प्रकारों का अनुभव होता है जिसमें सबसे दायित्व पूर्ण,जीवन के सुख-दुख का कारक एक प्रकार से संपूर्ण जीवन का परीक्षा की सबसे कठिन यात्रा है आजीविका की यात्रा..



छूटा, शेष कहीं, उन ग्रन्थों में,
फर-फराते, पन्नों पर,
जीवंतता खोकर,
व्यक्तित्व का, शायद, दूसरा ही पहलू,
उभरे ना, इक दूसरी परछाईं,
दूजे पन्नों तक!


गज़ल की दुनिया में शब्दों की कारीगरी ज़ज़्बात बयां करते हैं
पाबंदियों   के   दौर  में  ये  पूछिये  न  आप ।
कितना  करेंगे  सच  को बयाँ  शाइरी  से हम ।।

साक़ी  ने  जाम  तक  न  दिया  मैक़दे में तब ।
जब   बेक़रार  थे  वहाँ  तिश्ना-लबी  से  हम ।।


माँ शब्द स्वयं में संपूर्ण भाव है, माँ तेरी परछाई होना 


न जाने कैसे इतना कुछ रचा-बसा पाती हो माँ
आधुनिकता और तर्क को पकड़े मैं चाहे जहाँ भी पहुँच जाऊँ
तुमसे एक क़दम पीछे ही नज़र आती हूँ माँ
सोचती हूँ कि तुम सा होना असल में साधना है संपूर्णता की,
 खुद को हवा की स्रोतस्विनी बनाकर श्वास बन जाना है सहज ही
जिस दिन मैं भी थोड़ा सा आकाश, थोड़ी सी  धरती बन पाई
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आज के लिए बस इतना ही
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही हैं प्रिय विभा दी।
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8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बेहतरीन अंक..
    कुछ न कुछ समझाती रचनाएँ
    आभार..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. इस शानदार प्रस्तुति का हिस्सा बनकर आह्लादित हूँ।।।। आभार आदरणीया श्वेता जी।

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  3. वाह!श्वेता ,शानदार प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  4. मूर्ख दिवस भले ही एक दिवस हो , लेकिन इंसान न जाने कब और कितनी बार मूर्ख बनता है इसका कोई हिसाब नहीं ।। वैसे मुझे तो लगता है कि आज के समय में मूर्ख ही सबसे ज्यादा सुखी रह सकता है ।
    युद्ध की विभीषिका से प्रारम्भ कर माँ की गरिमा तक कि सारी रचनाएँ बेहतरीन लगीं ।
    कल से नव वर्ष का प्रारम्भ है , सबको शुभकामनाएँ ।।

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  5. बहुत सुंदर संकलन विविध रंगों में सजा हुआ ।
    नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई 🌹🌹

    जवाब देंहटाएं
  6. सराहनीय लिंक संयोजन, सभी रचनाएं बहुत ही हृदय स्पर्शी, सुंदर, सार्थक ,साथ ही प्रिय श्वेता की भावात्मक टिप्पणियां, सभी कुछ हृदय ग्राही।
    सुंदर अंक के लिए हृदय से साधुवाद।
    सभी रचनाकारों को बधाई।
    मेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय से आभार।
    सस्नेह सादर।

    जवाब देंहटाएं
  7. अत्यंत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति प्रिय श्वेता।युद्ध पर सैनिकों के मनोभावों पर कविता मन को छलनी कर गयी।सभी रचनाकारों की सुन्दर रचनाओं को मंच पर सजाने के लिए आभार और अभिनंदन।आज के स्टार रचनाकारों को सादर नमन और शुभकामनाएं ❤❤🙏

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  8. कौन नहीं है मूर्ख जगत में
    इस प्रश्न पर करें विचार,
    बुद्धू-बुद्धि के हेर-फेर से
    चलता जग का व्यापार।
    👌👌👌👌😄

    जवाब देंहटाएं

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