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मंगलवार, 1 जून 2021

3046.....और दिन भर मुस्कुराते हैं ...

जय मां हाटेशवरी...... 
खुशियों के लिए क्यों किसी का इंतज़ार ... 
आप ही तो हो अपने जीवन के शिल्पकार ... 
चलो आज मुश्किलों को हराते हैं और दिन भर मुस्कुराते हैं ... सादर नमन...... 
देश में करोना केसों का घटना..... 
शायद आहट है...... 
डेढ वर्ष पहले के उन दिनों की...... 
जब हम आजादी से कहीं भी विचरण कर सकते थे...... 
एक माह बाद शायद वो दिन फिर आने वाले हैं...... 
अब पेश है.....मेरी पसंद..... 

ये तो महज एक झाँकी है, 
बेवफ़ाई का हश्र तो अब देखोगे, 
क्योंकि मेरा इंतक़ाम अभी बाकी है। 

“प्रभु, नगाड़ों की गूँज से प्रजा हरदम आतंकित और चौकन्नी रहती है इसलिए चौकीदारों का काम प्रजा स्वयं कर देती है। इससे उनके पास समय ही समय रहता है, जिसे वे रास-रंग में व्यतीत करते हैं। “और जो इतनी सारी रस्सियाँ बट रहे थे वे कौन थे? “वे किसान थे प्रभु!” “अर्थात्!” “मदिरा और रास-रंग की आपूर्ति के बदले चौकीदारों ने व्यापारियों को खेतों का मालिक बना दिया।” 

इक दर्द, टीस जरा, मुझे है हासिल, पीड़ वही, करती है, बोझिल, यूँ, पथ में ही छूटे हम, उन यादों में डूबे, मुझसे दूर, मुझे ही ले जाते है! पहलू में कब आते हैं! 

वो उपन्यास जो आप बस एवं रेल्वे स्टेशन पर धड्ड़ले से बिकता दिखते है, से जुड़े उपन्यासकार अक्सर ऐसा फड़कता हुआ शीर्षक पहले चुनते हैं जो बस और रेल में बैठे यात्री को दूर से ही आकर्षित कर ले और वो बिना उस उपन्यास को पलटाये उसे खरीद कर अपनी यात्रा का समय उसे पढ़ते हुए इत्मेनान से काट ले. इन उपन्यासों की उम्र भी बस उस यात्रा तक ही सीमित रहती है, कोई उन्हें अपनी लायब्रेरी का हिस्सा नहीं बनाता. न तो उनका नया संस्करण आता है और न ही वो दोबारा बाजार में बिकने आती हैं. मेरठ में बैठा प्रकाशक नित ऐसा नया उपन्यास बाजार में उतारता हैं. इनके शीर्षक की बानगी देखिये – विधवा का सुहाग, मुजरिम हसीना, किराये की कोख, साधु और शैतान, पटरी पर रोमांस, रैनसम में जाली नोट.. आदि..उद्देश्य होता है मात्र रोमांच और कौतुक पैदा करना.. दूसरी ओर ऐसे उपन्यासकार हैं जिन्हें जितनी बार भी पढ़ो, हर बार एक नया मायने, एक नई सीख...पूरा विषय पूर्णतः गंभीर...समझने योग्य.पीढी दर पीढी पढ़े जा रहे हैं. शीर्षक उतना महत्वपूर्ण नहीं जितनी की विषयवस्तु. ये आपकी लायब्रेरी का हिस्सा बनते हैं. आजीवन आपके साथ चलते हैं. प्रेमचन्द कब पुराने हुए भला और हर लायब्रेरी का हिस्सा बने रहे हैं और बने रहेंगे..शीर्षक देखो तो एकदम नीरस...गबन, गोदान, निर्मला...भला ये शीर्षक किसे आकर्षित करते...मगर किसी भी नये उपन्यास से ऊपर आज भी अपनी महत्ता बनाये हैं.. 

पहली बार डॉक्टर मुस्कुराया होगा. बहुत छोटी सी बात थी तुम्हें अब समझ आयी. जब तुम अपने आप में नहीं थे तुम्हें मेरी और दवाइयों की ज़रूरत थी. ये ज़िन्दगी तुम्हारी है जिसकी बागडोर तुम्हें अपने हाथ में रखनी होगी. नहीं तो सब तुम्हें इधर-उधर घुमाते रहेंगे. मेरा काम ही है दूसरों को उनके पैरों पर खड़ा करना. मुझे तुम्हारी सारी परेशानियों का अंदाज़ है लेकिन मै भी यदि तुमसे सहानुभूति दिखाने लगता तो तुम अपने ही बनाये जाल में उलझ के रह जाते. वो दूसरों से सहानुभूति की आशा पाल लेता है. और लोग भी उसे दया का पात्र समझ कर कुछ शब्द भी बोल देते हैं. कभी कभी परेशानियों से उबरने में समय लगता है. कोई परेशानी ज़िन्दगी से बड़ी नहीं है. जीवन में ख़ुद से बड़ा कुछ नहीं है. कोई किसी के संग नहीं आता-जाता. सब अकेले हैं. जीवन छोड़ते जाओ तो छूटता चला जाता है. जीना है तो छोड़ना कुछ नहीं. सुख और दुःख दोनों जीवन के हिस्से हैं. तुम्हारे हिस्से सिर्फ़ सुख आयेगा ऐसा नहीं है. जीवन जीना है तो उसकी आँख में आँख मिला कर देखना पड़ेगा जैसे आज तुम मेरी ओर देख रहे हो. भागने से काम नहीं चलेगा. जिंदगी बहुत लम्बी है. ज़िन्दगी का नज़रिया बदलना पड़ता है. 

 धन्यवाद।

6 टिप्‍पणियां:

  1. आभार भाई कुलदीप जी
    बेहतरीन रचनाएँ चुनी आपने..
    सावधान व सजग रहिए...
    सादर..

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  2. अच्छी रचनाओं का चयन...खूब बधाई सभी रचनाकारों को।

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  3. बहुत बढ़िया लिंक्स मील बाण भट्ट जी की कहानी बेहतरीन लगी । और शीर्षक की तलाश भी जोरदार है ।

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  4. प्रिय कुलदीप जी, आपकी प्रस्तुति सदैव। विशेष होती है। आपके साथ सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई। सकुशल रहिए, सानंद रहिए।

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  5. सूत्र में हमारे ब्लॉग को जोड़ने के लिए शुक्रिया. प्रस्तुति सराहनीय है.

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