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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

2037...मेरा रोम-रोम रोमांचित हो रहा है

शुक्रवारीय अंक में आपसभी का
स्नेहिल अभिवादन

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विरह की उष्मा  
पिघलाती है बर्फ़
पलकों से बूँद-बूँद
टपकती है वेदना 
भिंगाती है धरती की कोख 
सोये बीज सींचे जाते हैं,
फूटती है प्रकृति के
अंग-प्रत्यंग से सुषमा,
अनहद राग-रागिनियाँ...,
यूँ ही नहीं 
ओढ़ते हैं निर्जन वन
सुर्ख़ ढाक की ओढ़नी,
मौसम की निर्ममता से
ठूँठ हुयी प्रकृति का 
यूँ ही नहीं होता 
नख-शिख श्रृंगार,
प्रेम की प्रतीक्षा में 
चिर विरहिणियों के
अधीर हो कपसने से,
अकुलाई,पवित्र प्रार्थनाओं से
अँखुआता है वसंत

#श्वेता सिन्हा
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आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-

कृष्ण-कन्हैया

उर की धडकन में धक-धक,
जो धड़क-धड़क कर बोले।
चतुर-चितेरा, चहक-चहक,
 मन वेणी,   तेरी  खोले।

प्यार 


किसी को किसी का 
मौन होना भाता है
तो किसी को किसी का 
गौण होना भाता है।
किसी को गालों का
डिंपल भाता है 

असमंजस में था ।
मन में सोच रहा था
आज अगर छत पर
सो जाऊं मैं चुपचाप ?
देखूँ कैसे दिखते हैं तारे 
दूर गगन में झिलमिलाते ।
कैसा लगता है चंद्रमा ?
नभ के भाल पर चमकता ।
और चांदनी का उजियारा ।


न उठा न जागा न कसमसाया 
हार कर हो गई आज मौन 
है कहीं, कोई और कौन ?
जिससे साक्षात्कार हो
अंगीकार हो 
जिसे मेरा, ये वाचाल मन
कर ले आत्म आलिंगन 
मुझे प्रस्फुटित कर दे 
प्रज्ज्वलित कर दे 

सुबह
मैं तुम्हें
अवश्य दूंगा
मेरी सुबह
तुम्हारी होगी
उसके शब्द
अभिव्यक्ति
और 
उम्मीद का उजास
सब 
सच है 
और 
एक गहरी रात

अश्रु गंगाजल


एक अनाम अतुल गहराईयों में......लुढ़कने लगती हूँ......
आधारहीन  पत्थर की तरह.....तभी, भावनाओं से आहत मेरा शरीर........छपाक से किसी की आग़ोश में गिर पड़ता है.......
जो शायद,मेरा ही इंतजार कर रहा था..... ना जाने कब से .......
मैं कुछ कह नहीं सकती......वो इंतजार था या.....
मुझ पर अनायास उमड़ा उसका दयाभाव......
जिसने मुझे अपने दामन में संभाल लिया......मेरे गिरने से.......
प्रतिक्रिया में उठी तरंगों की उफाने.......गर्जनघोष से नभ को ललकार उठी.......या शायद, उस प्रिय के प्रहार से व्यथित होकर.......
मैं खुद हर्ष से पुलकित हो.....खिलखिला उठी थी.....
एक मधुर हल्केपन का अहसास.....मेरा रोम-रोम रोमांचित हो रहा है.....

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कल विभा दी लेकर आ रही हैं
एक विशेष अंक पढ़ना न भूलिएगा।


9 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया आगाज़
    वसंत का..
    यूँ ही नहीं
    ओढ़ते हैं निर्जन वन
    सुर्ख़ ढाक की ओढ़नी,
    मौसम की निर्ममता से
    ठूँठ हुयी प्रकृति का
    यूँ ही नहीं होता
    नख-शिख श्रृंगार,
    प्रेम की प्रतीक्षा में
    चिर विरहिणियों के
    अधीर हो कपसने से,
    अकुलाई,पवित्र प्रार्थनाओं से
    अँखुआता है वसंत।
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. सुप्रभात !
    प्रिय श्वेता जी, नमस्कार!
    सुन्दर लिंक्स चयन तथा श्रमसाध्य कार्य हेतु आपको मेरी शुभकामनाएँ..मेरी रचना शामिल करने के लिए आपका हृदय से आभार..जिज्ञासा सिंह..

    जवाब देंहटाएं
  3. श्वेता जी,.
    आभार।
    इतने बड़े अंतराल के बाद ब्लॉग पर आई पोस्ट पर भी आपकी नजर पड़ी, आपने पढ़ा, पसंद किया और चुना...
    इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है।
    बहुत बहुत धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  4. मेरी रचना को स्थान देने के लिए तहेदिल से शुक्रिया श्वेता जी,सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं सादर नमन

    जवाब देंहटाएं
  5. वाकई सभी रचनाएं प्रशंसनीय योग्य है। बेहतरीन प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुंदर रचना प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं

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