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शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

1869...ये आधुनिक कौरवों की बस्ती है

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का 
स्नेहिल अभिवादन।
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बंद मुद्दों के पिटारे, ज़िंदा हैं सिसकियाँ
मुर्दे के फुदने से लटकायी कठपुतलियाँ
खेल रचे सच-झूठ और रहस्योद्घाटन के 
तमाशबीन रोमांच से पीटते हम तालियाँ
आले पर रोटी और पैताने मनुष्यता रख
जीभ पर झंडे उठाये देकर हम गालियाँ
देशभक्ति का लबादा प्रदर्शनी में पहने 
मुँह में जड़ ताले,आँखों में लगा जालियाँ
न भूख,न बेकारी,न बाढ़ और न बीमारी
मनोरंजक बातें करते 'हम' और मीडिया।
#श्वेता

आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-


परदे बहुत से
बहुत जगह लगे दिखे लहराते हुऐ हवा में
कई कई वर्षॉं से टिके
खिड़कियाँ भी नहीं थी ना ही दरवाजे थे
कहीं दिखा ही नहीं 

My photo
बेदखल जब हो गए हम नींद से
साथ बीते दिन सभी खलते रहे ।

चाँद जब बदली से फिर-फिर झाँकता,
दिल में उठते कुछ भँवर छलते रहे ।

ज़िन्दगी वीरान जब होने लगी,
सपने फिर बन ख़ौफ़ सँग चलते रहे ।

My photo
बेरहम और बेशर्म दौर में 
उनके बनाए चक्रव्यूह से
 निकलना आसान नहीं ,
ओ ! नादान अभिमन्यु 
ये आधुनिक कौरवों की बस्ती है, 
यहाँ कोई इंसान नहीं  .
निकलना हो अगर इस घेरेबंदी से ,



मैं अपने समाजसेवा के क्षेत्र में किये गए अपने महान कार्यों को याद करने लगा। इस कोरोना काल में गरीबों के बीच तेरह मास्क बांटे है। ढाई सौ ग्राम से इक्कीस पैकेट का बंटवारा किया। हाँ, यह अलग बात है कि एक एक तस्वीर को हर रोज रोज ऐसे डाला जैसे सोनू सूद को मैंने ही पछाड़ दिया हो। सबका एलबम बनाया। और  अभियान में शुरू हो गया।

फेमिनिज़्म

लेकिन सवाल यह है कि आग में वो ही क्यों कूदे? सती-प्रथा हो या जौहर, एक नारी के लिए ये समाज की कुदृष्टि से बचने के लिए चुना गया अंतिम विकल्प है जो दुर्भाग्य से सामूहिक भी होता आया है. कितने दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण  होते होंगे वो पल, जहाँ उसे इस बात का पूरा भरोसा हो जाता है कि उसके मान-सम्मान की रक्षा करने वाला कोई नहीं! और लोग इसे महानता कहकर अपनी शर्मिंदगी पर पर्दा डाल देते हैं! हाँ, वो सचमुच महान है पर पुरुष समाज से निराश भी!


हमारे मुहल्ले भर की चाची
जब लाइफबॉय से नहाएँ
तो फिर पियर्स से नहायी
'लकी' चेहरा वाली 'आँटी'
किसी भी 'कम्पटीशन' के पहले
अब हम भला कहाँ से लाएँ ?


आज के लिए विशेष
आज मशहूर शायर,ग़ज़ल गो,
कवि फ़िराक गोरखपुरी का जन्मदिन है।
ख़ुदरंग शायर की लिखी ग़जल
सुनिये

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं. 
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं. 
मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं. 
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं.

उम्मीद है आज का अंक
आपको अच्छा लगा होगा।

हमक़दम के लिए

कल अंक पढ़ना न भूले
विभा दी आ रही है
अपने विषय विशेष के साथ
सादर

9 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे मुहल्ले भर की चाची
    जब लाइफबॉय से नहाएँ
    तो फिर पियर्स से नहायी
    'लकी' चेहरा वाली 'आँटी'
    किसी भी 'कम्पटीशन' के पहले
    अब हम भला कहाँ से लाएँ ?
    सुबह की मुस्कान..
    आभार ..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह!!श्वेता ,बहुत खूबसूरत प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  3. जी! आभार आपका ... आज की अपनी इंद्रधनुषी प्रस्तुति के साथ इस मंच पर मेरी रचना/ विचारधारा को स्थान देने के लिए .. साथ ही अंत में एक पसंदीदा बंद -
    "तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
    हम ऐसे में तेरी यादों के चादर तान लेते हैं"
    को समेटे ग़ज़ल से रूबरू कराने के लिए भी ...
    रही बात आपके आज के प्रस्तुति के आगाज़ की तो ...
    "न भूख,न बेकारी,न बाढ़ और न बीमारी
    मनोरंजक बातें करते 'हम' और मीडिया।"
    हम या मीडिया भी भूख, बेकारी, बाढ़ या बीमारी की बात करके समस्या का निदान तो कर नहीं पाते कभी। हम अपनी रचनाओं से अपनी और मीडिया अपनी बातों से TRP की होड़ में लगे रह जाते हैं और निदान कोई तीसरा सच्चा समाजसेवी इंसान या संस्थान कर जाती है .. शायद ...
    निदान के लिए सरकार के साथ-साथ हमें भी Ground Zero Reporting वाले मीडिया की तरह वहाँ तक जाना होगा, पर रिपोर्टिंग के लिए नहीं, बल्कि सोनू सूद ( ना चाहते हुए भी बार-बार नाम लेना पड़ता है) की तरह निदान के लिए ..शायद ...

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बहुत शुक्रिया श्वेता जी ।
    आभार

    जवाब देंहटाएं

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