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रविवार, 26 जुलाई 2020

1836.....करना कृपा हम पर हे त्रिपुरार, दूर करो जग से कोरोना की मार।

जय मां हाटेशवरी......
तेजमय बढ़ी हुई दाढ़ी से दिव्य लग रहे साधु को देख कर नदी किनारे बैठा वह युवक उठा और साधु को प्रणाम कर जाने लगा। साधु ने पीछे से युवक को आवाज़ दी – ‘रुको वत्स।‘
युवक रुका और उसने पीछे मुड़ कर देखा। साधु ने कहा- ‘बिना आत्महत्या किये जा रहे हो!!’
युवक चौंक गया। वह सोचने लगा कि साधु को कैसे मालूम हुआ कि वह यहाँ आत्महत्या के कुविचार से आया था। वह कुछ कहता, साधु समीप आया और बोला- ‘बेटे, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है ओर फिर इस शरीर को नष्ट करने का अधिकार तुम्हें किसने दिया?’
साधु ने उसके कंधे पर हाथ रख, मुस्कुरा कर कहा- ‘तुम स्वयं इस लोक में नहीं आये हो, तुम्हें लाया गया है। पता नहीं प्रकृति तुमसे कौनसा अनुपम कार्य करवाना चाहती है? हो सकता है, कोई ऐसा कार्य, जिससे तुम अमर हो जाओ।‘
साधु ने उसके कंधे पर दबाव डाला और कहा-‘आओ, चलो मेरे साथ।‘ वह मंत्रमुग्ध सा उस साधु के साथ चलने लगा। साधु ने कहा- ‘तुमने अपने शरीर को समाप्त करने की अभिलाषा की अर्थात् एक तरह से तुम मर चुके हो, परन्तु भौतिक शरीर से तुम अब भी जीवित हो। अब यह शरीर तुम्हारा नहीं।‘ वह युवक कुछ समझ नहीं पा रहा था। वह उस साधु की तेजस्वी आँखों से आँखे नहीं मिला पा रहा था। वह सिर नीचे किये उसके साथ चलता रहा। नदी के समीप के ही अरण्य के रास्ते बढ़ते हुए उस युवक का दिल धड़कने लगा। साधु ने कहा-‘घबराओ नहीं।‘ थोड़े समय तक दोनों चुप रहे और अरण्य में आगे बढ़ते रहे। पल भर के लिए युवक अपने भौतिक संसार को भूल चुका था। रास्ते में सिंह मिला। सिंह ने नतमस्तक हो कर साधु और युवक का वंदन किया। साधु बोला- ‘केसरी, मनुष्य और तुम में कौन सामर्थ्यवान् है?’ सिंह ने कहा- ‘मुनिवर, योनि में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है, इसलिए सबसे सामर्थ्यवान् मनुष्य ही है।‘ सिंह से बात करते हुए कोतूहल से युवक के मुँह से कुछ नहीं निकल रहा
था। वह बस किंकर्तव्यविमूढ़ अपनी दुनिया को भूल वार्तालाप सुन रहा था। साधु ने पूछा- ‘वह कैसे केसरी?’
सिंह ने कहा- ‘साधुवर, हमारा शरीर बलिष्ठ है, केवल शिकार करने में, डराने में, दहाड़ने में। इस अरण्य में भले ही मैं शक्तिवान् हूँ, किन्तु इस चराचर जगत् में मुझसे भी बलिष्ठ हैं, जिनमें से एक मनुष्य भी है। हम अपने पूरे सामर्थ्य और बल का उपयोग केवल अपनी भूख मिटाने में गँवा देते हैं और मनुष्य अपनी बुद्धि, बल और
सामर्थ्य से हर कठिनाई से जूझता है और सफल होता है। अरण्य में आकर वह मेरे परिवार का शिकार कर ले जाता है। अब आप बताइये, वो सामर्थ्यवान् है या मैं!!’
साधु और वह युवक आगे बढ़े। रास्ते में हाथी मिला। हाथी से भी साधु ने वही प्रश्न किया। हाथी बोला- "मुनिश्रेष्ठ, आप क्यों मेरा परिहास कर रहे हैं? मैं तो चींटी तक से आहत हो जाता हूँ। मनुष्य मुझे एक तीक्ष्ण अंकुश से अपने वश में कर लेता है। मेरी पीठ पर बैठ कर मुझसे मनचाहा कार्य करवा लेता है। मैं बस मोटापे से सहानुभूति पाकर अकर्मण्य हो इधर-उधर भटकता रहता हूँ, अरण्य में वनस्पति खा खा कर मोटा हो रहा हूँ। कुत्ते मेरे पीछे भोंकते रहते हैं। मनुष्य को कोई नहीं पा सकता, वह श्रेष्ठ है।" वे फिर आगे चले। रंग-बिरंगे बहुत ही सुंदर पक्षियों का झुण्ड मिला। साधु के प्रश्न पर चहचहाते हुए वे बोले- "मनुष्य के आगे हमारी क्या बिसात तपस्वी। हम नन्हीं-सी जान तो इनका मनोरंजन करती हैं, हम या तो इस अरण्य में स्वच्छंद घूम सकते हैं या मनुष्य के घरों में पिंजरों में बंद हो कर संतोष कर लेते हैं। अभी तक तो हम यह समझते थे कि गिद्ध या चील ही सबसे ऊपर आकाश में उड़ सकती हैं या कपोत दूर तक उड़ान भर सकता है, पर हमें नहीं पता था, आदमी तो न जाने किस पर सवार हो कर पलक छपकते ही जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है।" पक्षियों ने एक स्वर में कहा- "मनुष्य विलक्षण बुद्धि वाला प्राणी है।" वे दोनों को मुस्कुराता देखते हुए आकाश में खो गईं।
आगे उन्हें कुत्ता मिला। कुत्ते ने साधु के उसी प्रश्न के उत्तर में जवाब दिया- "मैं कितना भी स्वामीभक्त क्यों न हो जाऊँ, मनुष्य की महानता को नहीं पा सकता।
मैंने एक ही बात मनुष्य में हम जंगली प्राणियों से भिन्न पाई है, वह यह कि मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु मनुष्य ही है। हम यहाँ अरण्य के प्राणी सपरिवार, सकुटुम्ब शिकार कर एकसाथ भोजन करते हैं, किंतु मनुष्य कभी शांति से भोजन नहीं करता। यही कारण है कि मनुष्य, मनुष्य का शत्रु बन बैठा है। हमें पालने वाला ये मनुष्य, हमसे जैसा भी बरताव करते हैं, हम कभी विरोध नहीं करते, किंतु मनुष्य जब से मनुष्य का शत्रु बन बैठा है, तब से धैर्य खो बैठा है। वहाँ मुझे मनुष्य से नहीं मेरे वंश के लोगों से डर लगता है। मनुष्य ने मेरे वंश की न जाने कितनी नई प्रजातियों जन्म दे दिया है, वे प्रजातियाँ अरण्य में नहीं पाई जाती। मनुष्य की बुद्धि का कोई
पार नहीं।"
आगे गीदड़ से युवक को मिलाते हुए साधु ने कहा- "अरण्य का यह सबसे चतुर जानवर है। इससे पूछते हैं मनुष्य के बारे में।" उससे पूछने पर गीदड़ ने कहा- "साधु, इस संसार में अच्छे-बुरे, निर्बल-सबल, धुरंधर, धैर्यवान, सभी प्रकार के प्राणी हैं, उनके बीच रहना भी टेढ़ी खीर है, आसान नहीं। मेरे जैसे भी होंगे मनुष्य जीव-जगत् में।
मनुष्य को जहाँ तक परखा है, महामुनि, वह मेरे जैसों का शिकार नहीं करता, क्यों नहीं करता, मैं यह नहीं जानता, अरण्य में भी मेरे परिवार का कोई शिकार नहीं करता, वनराजभी नहीं, इसीलिए मैं यहाँ स्वच्छंद घूमता हूँ। मुझे तो बस मनुष्य से डर लगता है, क्योंकि शहर में बड़े बड़े दिग्गजों को मनुष्य के आगे नतमस्तक होते देखा है, इसीलिए मैं कभी शहर में नहीं गया। मनुष्य चमत्कारी है। उसको प्रकृति के सिवाय कोई चुनौती नहीं दे सकता।" इस प्रकार अरण्य में मिले सभी प्राणियों ने मनुष्य की ही प्रशंसा की। साधु ने अरण्य में बह रहे एक निर्झर के पाषाण पर बैठ कर कहा- "सुनो वत्स, मनुष्य माया मोह में जकड़ा हुआ ऐसा प्राणी बन गया है कि वह इस दलदल से जब तक नहीं निकलेगा, वह चैन से नहीं जी सकता। और यह हर युग में जब भी सम्भव नहीं हो पाया, अवतार हुए हैं। अपने अहं के कारण वह धीरे धीरे संस्कार भूलता जा रहा है। अपने परिवार को संस्कारी नहीं बना पाने से वह संयुक्त परिवार में रहने के तौर-तरीके, लाभ-अलाभ सब भूलने पर तुला हुआ है। इसी का परिणाम है कि तुम जैसे न जाने कितने बिना सोचे-समझे आत्महत्या का निर्णय ले लेते हैं और मनुष्य अपनी जाति ही नहीं अन्य प्राणियों के लिए भी एक कौतूहल का विषय बन बैठा है, क्योंकि ये जंगली जीव कभी आत्महत्या नहीं करते, अंतिम क्षणों तक मौत से जूझते हैं, तब कहीं जा कर प्राण त्यागते हैं। मनुष्य के इस कृत्य से वे अब मनुष्य से डरने लगे हैं। शहरों में इन वन्य प्राणियों से जैसा बरताव हो रहा है, अच्छे मनुष्य उन्हें पुन: अरण्य में जाकर छोड़ने लगे हैं और अभ्यारण्य विकसित करने लगे हैं।"  युवक के कंधे पर हाथ रख कर उठते हुए कहा- "मनुष्य को महत्वाकांक्षा ने अनासक्ति भाव से रहना ही भुला दिया हैं, यह कार्य अब तुम्हें करना है। तुम्हें आज से दूसरों के हित के लिए नया मार्ग प्रशस्त करना है। पुरुषार्थ और परमार्थ से अपने जीवन को तपाना है, क्योंकि तुम्हें तो अमर होना है। मरना होता तो तुम अब तक अपना भौतिक शरीर त्याग चुके होते, आत्महत्या कर चुके होते। इसलिए अब आगे बढ़ो और नये युग का सूत्रपात करो। तुम्हें इस संसार में शेरदिल इंसान मिलेंगे, अनेक हस्तियाँ मिलेंगी, सुंदरता मिलेगी, कुत्ते जैसे वफ़ादार और गीदड़ जैसे चाटुकार मिलेंगे। अजगर वृत्ति वाले आलसी लोग मिलेंगे, दो गले और दो जीभ वाले सर्प प्रवृत्ति वाले विषैले मनुष्य भी मिल सकते हैं, समय पर रंग बदलने वाले गिरगिट जैसी प्रकृति वाले भी मिलेंगे, आँखे फेरने वाले तोताचश्म भी तुम्हारे जीवन में आयेंगे। तुम्हें इन सबको पहले परखना होगा और अपना रास्ता ढूँढ़ना होगा।"
साधु ने आगे बढ़ते हुए कहा- "अब मैं बताता हूँ कि मनुष्य सबसे श्रेष्ठ क्यों है? अरण्य के सभी प्राणियों में अपनी-अपनी प्रकृति है, किंतु अरण्य के सभी प्राणियों की प्रकृति अकेले मनुष्य में है। अपनी-अपनी प्रकृति और गुण के कारण अरण्य के प्राणियों का रूप और स्वरूप, आकार-प्रकार अलग-अलग है, किंतु दुनिया के सभी प्राणियों की प्रकृति वाले मनुष्य का स्वरूप आज तक नहीं बदला।" युवक को अरण्य से निकल कर शहर का मार्ग दिखाते हुए साधु ने कहा- "जाओ, निकल जाओ परमार्थ के यज्ञ को करने और जब भी तुम अपने-आप को उद्विग्न पाओ तो इस वन में चले आना। इन प्राणियों ने तुम्हें एक बार देख लिया है, मनुष्य तुम्हें भूल सकता है, किंतु तुम्हें ये प्राणी कभी नहीं भूलेंगे। जाओ, पीछे मुड़ कर मत देखना। इस शरीर को तुम अब पुरुषार्थ और परमार्थ के लिए कंचन बनाओ।"


दोस्तों, फर्न के पौधे की जड़ें बहुत कमज़ोर होती हैं जो जरा सी तेज़ हवा से ही जड़ से उखड जाता है। और बाँस के पेड़ की जड़ें इतनी मजबूत होती हैं कि बड़ा सा बड़ा तूफ़ान भी उसे नहीं हिला सकता। इसलिए दोस्तों संघर्ष से घबराये नहीं। मेहनत करते रहें और अपनी जड़ों को इतनी मजबूत बना लें कि बड़े से बड़ी मुसीबत, मुश्किल से मुश्किल हालात आपके इरादो को कमजोर ना कर सके और आपको आगे बढ़ने से रोक ना सके।
अब पेश है.....मेरी पसंद.....

काव्य पाठ
दया करो हे वीणा पाणी सुन लो विनय हमारी।
सरस-ज्ञान से वंचित हैं हम, हरो मूढ़ता सारी।
महाश्रया मालिनी चंद्रिका वक को हंस बना दो।
उगे हुए कैक्टस अंतर में, सुंदर पद्म खिला दो।।
महाभुजा दिव्यंका विमला, मैले वस्त्र हमारे।
नवल-धवल पट कर प्रदान माँ, ताकि प्राणतन धारे।
देवि ज्ञानमुद्रा त्रिगुणा जय, सुवासिनी की जय हो।
माँ शुभदा शुभदास्तु बोल दो, हमें न किंचित भय हो।।



बादल तेरे आ जाने से ....
यूँ उमड़ घुमड़ तेरा छाना
तेरी पीड़ा दरशाता है ,
बादल तेरे आ जाने से
जाने क्यूँ मन भर आता है !
तेरे हर गर्जन के स्वर में
मेरी भी पीर झलकती है,
तेरे हर घर्षण के संग-संग
अंतर की धरा दरकती है !
तेरा ऐसे रिमझिम रोना
मेरी आँखें छलकाता है ,



बारिश की बूंदे
बारिश की बूंदे
दौड़े आते थे हम
घर में, दादी -मम्मी देखो!
बरसात आने वाली है
बारिश की बूंदे
जैसे टपकने लगती,
हम भाग जाते थे
छत पर आंगन में
दादी मम्मी से छुपके
हाथ फैला कर हम
गले लगाया करते थे
हम कितना खुश होते थे




चाय पीते समय
आज हम चेतना की सतह पर खड़े होकर सुबह सुबह सूरज की पहली किरण का स्वागत करते हैं.अतीत हमारा सबसे ताकतवर मित्र होता है,यही हमारे चेतन मन को शक्तिशाली बनाता
है, जिसके बल पर हम अब जीवन जीने की कला और संघर्षों से लड़ने की तमीज सीख पाएं है.                            हम कठिन समय के दौर से गुजर रहें हैं,यह दौर जीवन मूल्यों को समझने,जात पांत,धर्म,को एक करने का दौर है,राजनीति से परे आत्मचिंतन का दौर है, बुजुर्ग पीढ़ी को सम्हालने औऱ नयी पीढ़ी को अच्छे संस्कार
देने का दौर है



आई सुहानी नागपंचमी
 द्वार सम्मुख नाग बने,
गोरस का भोग लग।
करना कृपा हम पर हे त्रिपुरार,
दूर करो जग से कोरोना की मार।
सखियों में धूम मची,
धानी चूनर से सजीं।
गुड़िया बनाए अति सुंदर सजाय,
भाई-बहन मिल गुड़िया मनाय।

एक दुर्लभ संवाद
पत्रकारिता के लोकप्रिय लटके – झटके हैं । यह इस  बात का भरोसा दिलाती है कि मुक्त विचार यात्राएं अभी भी संभव हैं ।    इसमें समाज,  राजनीति , अर्थ  जगत,दर्शन , संस्कृति , मनोविज्ञान , साहित्य आदि  के एक दूसरे से जुड़े हुए वे तमाम सूत्र  दिखाई देते हैं जिनका एक विस्तृत और  अनिवार्य संदर्भ आज हमारे बीच उपस्थित
है। नई-नई शक्लों में ।
तीनों कथाकार लगभग एक ही पीढ़ी के हैं, किसी भी अकादमिक संस्थान के बंधे बंधाए ढर्रे के बाहर है।  इसलिये द्बाव मुक्त  हैं।  इसलिये  उनके भीतर एक सख्य भाव है। मुद्रा, जेस्चर , सिनिसिज़्म , आत्म तुष्टि   और  अपने स्व के आरोपण का उनके लिए कोई मतलब नहीं है। यहाँ जिज्ञासाएं  हैं और प्रति- प्रश्न भी । बहस है और
आत्मीयता भी। वे एक दूसरे से सहमत है और एक दूसरे से विनम्र असहमत भी।



ताना - बाना - मेरी नज़र से - 9
ताना-बाना एक व्याख्या है पल पल जिये एहसासों की, नज़र से गुजरते पात्रों की, शब्दों की, स्त्री पुरुष की,प्रकृति की, सप्तपदी की,मातृत्व की, तूफान के आसार की, मानसिक चक्रव्यूह की, अदृश्य शक्ति की ....
"क्या होगा कल बच्चों का ?
....
वही जो होना है"
यह जवाब झंझावात में वही देता है, जिसकी पतवार पर प्रभु की हथेलियों के निशान होते हैं, मृत्यु के खौफ़ से जो लड़ बैठता है ।
अब इसे जीने का सलीका कह लो, या अपनी आत्मा से मौन साक्षात्कार ।


समय धरावै तीन नाम- परशु, परशुवा परशुराम
खेत मां के नाम, घर मां के नाम लेकिन बेटों ने सब हड़प लिया. ढींगुर का सारा यत्न, सारी व्यवस्था, सारा रुतबा धरा का धरा रह गया. उनके मरने के महज कुछ दिन बाद ही सब का सब खत्म हो चुका था. मकान खंडहर था. घर तोड़ा इसलिए गया कि बेटों को हिस्सा नहीं मिल रहा था. हिस्सा मिला, किसी का निवाला छिन गया. ढींगुर बहू की किस्मत में मार लिखी थी. मार मिली. कभी बहुओं की तो कभी समय की. कुछ जीव ऐसे होते हैं, जिनके भाग्य में दुख मढ़ा गया होता है.
ढींगुर ने मरने से पहले कहा भी था कि जवानिया में हम तपेन, बुढ़पवा हम्मे तापत है. जितना ढींगुर ने जिस तरीके से कमाया था, उन्हीं के सामने वह ख़त्म हो गया.
जो धन जइसे आत है, सो धन तइसे जात. ढींगुर भवन से गुज़रता हर शख़्स यही कहते हुए निकलता है. आज सब मरे हुए ढींगुर को नसीहत दे रहे हैं, वही लोग, जो उनके सामने कभी बोल नहीं सके थे. ढींगुर बहू भी सब कुछ सहते, सहाते कह ही देती हैं कभी-कभी.


धन्यवाद।

8 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार प्रस्तुति...
    आभार आपका..
    सादर..

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  2. बहुत सुन्दर हलचल आज की ! मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार कुलदीप जी ! सादर वन्दे !

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  3. आज की प्रस्तुति अब से अधिक सुंदर है। सर की साधु और युवक वाली कथा इतनी सुंदर और प्रेरणादायक है और हम सभी युवाओं के लिए अत्यंत आवश्यक।
    सभी कविताएँ और लेख प्रेरणादायक और शिक्षा-प्रद थीं(सदा की तरह)।
    परन्तु आज की प्रस्तुति मेरी प्रिय प्रस्तुति है। एक भी रचना ऐसी नहीं थी कि जहाँ से मैं ने कोइवपमक्ति अपने मन में रखने के लिये न उठाई हो।
    बहुत बहुत आभार।
    आप सबों को प्रणाम।

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  4. प्रभावी कहानी के साथ अच्छी भूमिका का निर्वाह
    सुंदर लिंक संयोजन
    सभी सम्मलित रचनाकारों को बधाई
    मुझे सम्मलित करने का आभार

    जवाब देंहटाएं

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