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रविवार, 1 मार्च 2020

1689....बरसों की आरी हँस रही थी घटनाओं के दाँत नुकीले थे


जय मां हाटेशवरी......
स्वागत है आप का.....
बरसों की आरी हँस रही थी
घटनाओं के दाँत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूट गया
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया

आँखों में कंकड़ छितरा गए
और नज़र जख़्मी हो गई
कुछ दिखाई नहीं देता
दुनिया शायद अब भी बसती है----अमृता प्रीतम 
अब पेश है....मेरी पसंद.....

  ग़ज़ल - चिढ़ है जन्नत से
कितना ही कमज़ोर हो पर अपने दुश्मन से ,
होशियारी और सब तैयारियों से लड़ ।।10।।
टाट पे मखमल का मत पैबंद सिल रे ,
क़ीमती हीरे को लोहे में नहीं जड़ ।।11।।

कविता : खेल
तबसे बच्चे
घरों में कैद हैं
धर्म सड़कों पर है
और खूँटियाँ सरों पर
अब बड़े खेल रहे हैं






दर्द की तलाश
नीरस हो गई है ज़िन्दगी,
अतिरेक हो गया है सुख का,
जीने के लिए अब दर्द ज़रूरी है.
थक गया हूँ मैं
दर्द खोजते-खोजते,
कोई मुझे सही-सही बताए
कि आख़िर दर्द कहाँ रहता है.
गीत अक्सर गुनगुनाया करो
आईना यूँ भी हम से कहता है , तू जो सोचता है
दिखता है , खुद को यूँ भी न भुलाया करो
आह से भी तो उपजता है गान
गाने लगती है सारी कायनात , ये कभी न भुलाया करो
बेवफा है जिंदगी न करना मौहब्बत
महफूज़ नहीं इन्सां पहलू में जिंदगी के ,
मजरूह करे जिंदगी मरहम मौत है .
.................................................................
करती नहीं है मसखरी न करती तअस्सुब,
मनमौजी जिंदगी का तकब्बुर मौत है .
................................................................








धन्यवाद।

7 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन रचना संगम..
    आभार आपका...
    सादर...

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर प्रस्तुति, मेरी भावनाओं को स्थान देने हेतु हार्दिक धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर संकलन. मेरी कविता शामिल करने के लिए शुक्रिया.

    जवाब देंहटाएं
  4. शानदार प्रस्तुति।
    सुंदर लिंक।
    सभी रचनाकारों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर अंक, मर्मस्पर्शी भूमिका। सादर।

    जवाब देंहटाएं

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