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गुरुवार, 31 अक्टूबर 2019

1567...अधिकार जो तुमको है पाना कुछ कर्म भी करते जाना ...

 सादर अभिवादन। 
             आज 31 अक्टूबर है। इतिहास का उथल-पुथल भरा दिन। 
भारत को एकता के सूत्र में बाँधने वाले 'लौह पुरुष' भारत के पहले उपप्रधानमंत्री व गृहमंत्री  सरदार बल्लभ भाई पटेल का जन्म दिवस है जिसे अब देशभर में राष्ट्रीय अखंडता दिवस के रूप में और 'रन फॉर यूनिटी' जैसे सरकारी आयोजन के तौर पर मनाया जाता है। 
        आज भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री 'लौह महिला' इंदिरा गाँधी की पुण्य तिथि है। इंदिरा जी की मृत्यु के उपरांत 31 अक्टूबर 1984 को हुए सिख  विरोधी दंगों ने देश का सर शर्म से झुका दिया जिसे एक राजनीतिक दल द्वारा प्रायोजित दंगा भी कहा जाता है। इन दंगों में सिख समुदाय के क़रीब 3000 लोग मारे गये थे। 

        आज से आधिकारिक रूप से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को राज्य के स्थान पर केन्द्र शासित प्रदेश का दर्ज़ा मिल रहा है। भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को समाप्त करके नयी व्यवस्था लागू की है जिसमें सेना की जवाबदेही विशेष रूप से बढ़ गयी है। कश्मीर का सन्नाटा अब नयी सुगबुगाहट पैदा कर रहा है।  
हम दुआ करते हैं देश में अमन और शांति का माहौल स्थापित हो और सभी नागरिक भयमुक्त जीवन जीने के हक़दार हों। 
आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-  

 

जीवन के खुरदुराहट के भीतर
मन की अँगुलियों ने
यात्रा सुखद हो
इसलिए कितने ही रास्ते बनाएं
सारे संताप उलीचने की कोशिश की
और यात्रा जारी रखी


 

खुद को दबाना होता है
बार बार मिट्टी में,
बीज बन जो मिटते हैं
औरों के लिए,
वही नव अंकुरित होते है,
लहराते है फसलों से,



 

धरती पर खिलते हैं जब फूल कांस के
मिलती है चेतावनी बादलों को,
कह गये बड़े बुज़ुर्ग यह बात..!
कांस लहराये तो बादलों की शामत आये..!!

 मेरी फ़ोटो

अधिकार जो तुमको है पाना
कुछ कर्म भी करते जाना 
समुद्र की गहरी हलचल में
हंस बनो इक मोती चुनो
चुनना तुम्हारा कर्म -धर्म है


 
एक सुबह किचन से श्रीमती ने आवाज़ लगाई 'अलेक्सा प्ले भजन बाई प्रह्लाद टिप्पणिया' . अलेक्सा ने कुछ सोच कर जवाब दिया 
- आई डोंट अंडरस्टैंड प्रहलाद टिप्पणिया !
जवाब पसंद नहीं आया. किचन से निकल कर श्रीमती ने अलेक्सा के पास आकर डांटा - अलेक्सा स्टॉप. इसे तो कुछ पता ही नहीं है. वापिस जाकर देखा तो चाय उबल कर गैस के चूल्हे पर गिर चुकी थी. तब से श्रीमती और अलेक्सा की दोस्ती ख़तम सी हो गई है. अलेक्सा अब ज्यादातर शांत बैठी रहती है.  


 अर्चना चावजी
  
आपके हॉस्पिटल इन रहते सुबह की चाय 6 बजे बाहर गुमटी पर पी लेती क्यों कि फिर गुमटी वाले का दूध खत्म हो जाता वो लौट जाता ...दिन भर आईं सी यू के बाहर बैठकर आने जाने वालों को ताकते रहते ....रिसेप्शनिस्ट चाय पूछती पर बाद में पीने का मन ही नहीं रहता 2 महीने ऐसे ही बीत गए थे .....


आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले गुरूवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव  

बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

1566..किस कदर खामोश हैं चलते हुए वे लोग..


।।भोर वंदन।।
ज्योति पर्व के बाद एक और ... 
कालजयी रचना 
आदरणीय केदारनाथ सिंह जी के शब्दों के साथ..✍


१.
"जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती हैं,
एक दिया वहाँ भी जलाना;
जाना, फिर जाना..!!"
२ .
"शब्द सारे धूल हैं, व्याकरण सारे ढोंग,
किस कदर खामोश हैं चलते हुए वे लोग!


पियाली टूटी पड़ी है , गिर पड़ी है चाय ~

साइकिल की छाँह में सिमटी खड़ी है गाय!



पूछता है एक चेहरा दूसरे से मौन ~~

बचा हो साबूत- ऐसा कहाँ है वह कौन?"



🌼🌼






वक़्त की रफ्तार में ये क्या फसाने हो गए

खो गया बच्चों का बचपन वो सयाने हो गए।



बस किताबी ज्ञान में उलझा हुआ है बचपना

खेलना मिट्टी में कंचों से जमाने हो गए।

🌼🌼






पैरों के महावर से

माँग में भरे सिंदूरी रंग से

काले मोतियों में गूँथे अटूट बंधन से

रेशम की डोर से

बाबुल की चुनरी से
देह से या देहातीत
मन से या मष्तिष्क से
और
आत्मा की अनन्त गहराइयों से..

🌼🌼



. दिगंबर नासवा जी..
रात की काली स्याही ढल गई ...

दिन उगा सूरज की बत्ती जल गई

रात की काली स्याही ढल गई

सो रहे थे बेच कर घोड़े, बड़े

और छोटे थे उनींदे से खड़े
ज़ोर से टन-टन बजी कानों में जब 

🌼🌼

जाते - जाते एक और खूबसूरत रचना के साथ आज की प्रस्तुति यहीं तक..



"जाते हुए पक्षी पर

रुके हुए जल पर

घिरती हुई रात पर
दो मिनट का मौन



जो है उस पर

जो नहीं है उस पर

जो हो सकता था उस पर

दो मिनट का मौन"

केदारनाथ सिंह
🌼🌼

।।इति शम।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍


मंगलवार, 29 अक्टूबर 2019

1565 ...अबकी बार लौटा तो मनुष्यतर लौटूंगा

सादर अभिवादन
गई दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ
आज भैय्यादूज है..
सभी को शुभकामनाएँ

कुछ रचनाएँ हैं..पर पहले एक कालजयी रचना
अबकी बार लौटा तो ... कुंवर नारायण
अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से

अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं

अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा

अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा

अब कुछ नियमित रचना ...



पत्नी की रहनुमाई में, 
दिवाली की सफाई में, 
दृश्य एक दिखलाता हूँ 
क्या पाया, बतलाता हूँ।

एक पुराना बक्सा था 
जिसमें मेरा कब्जा था 
जब बक्सा मैने खोला 
धक से मेरा दिल डोला 


देख तो रघु की बेटी कितना सुंदर घरौंदा बनाई है।राजमहलों के नमूना ही पेश कर दिया।खिड़कियों की तो बात ना करो।महारानी पद्मिणी का झरोखा लगता है ।नक्काशी में बादशाहत झलकता है।
एक तू है जो जो साधारण घरों जैसा भी नहीं बना पाती ।घरौंदा क्या,वयाओं का घोंसला बनाई है।दरवाजे चूहे का बील है और खिड़कियाँ छछुंदर के।


पैक हुई लाॅकर मे, खुशियाँ अनलॉक करो।
पैक हुई लाॅकर मे, खुशियाँ अनलॉक करो।
बुझे , बुझे मत रहो, थोड़ा तो रॉक करो।
बुझे , बुझे मत रहो, थोड़ा तो रॉक करो।


करोड़ों दीप, कर उठे, एक प्रण, 
करोड़ों प्राण, जग उठे, आशा के क्षण, 
जल उठे, मन के छल, प्रपंच, 
लुप्त हुए द्वेष, क्लेश के सारे दंश, 
अब ये रात क्या सताएगी? 
तम की ये रात, ढ़ल ही जाएगी!
....
आज बस
कल आएँगी सखी पम्मी जी
सादर



सोमवार, 28 अक्टूबर 2019

1564.... कालजयी रचनाएँ

सादर अभिवादन
आज सोमवार को आपको प्रतीक्षा रहती थी
विषय पर रचित रचनाओं की
पर अफसोस आज वो नहीं,,

आज पढ़िए कुछ कालजयी रचनाएँ
दूध में दरार पड़ गई...स्मृतिशेष अटल बिहारी वाजपेयी
ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।

अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
........

हममें कोई कुछ, कोई कुछ,... अदम गोंडवी
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मज़हबी नग्मात को मत छेड़िए

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मौसम का मिजाज़ ...अनुलता राज नायर
मौसम का मिजाज़ खरा नहीं लगता
सावन भी इन दिनों हरा नहीं लगता.

एक प्यास हलक को सुखाये हुए है
पीकर दरिया मन, भरा नहीं लगता.

चमकता है सब चाँद तारे के मानिंद
सोने का ये दिल खरा नहीं लगता.

अपने ही घर में अनजान से हम
अपना सा कोई ज़रा नहीं लगता

हैवानों से भरी ये दुनिया तेरी है
कि कोई भी इंसा बुरा नहीं लगता.

सुनता नहीं वो मेरी, इन दिनों
कहते है जिसको खुदा,बहरा नहीं लगता.
....
तीन रचनाएँ हैं
आपको अवश्य पसंद आएगी
दीपावली की अशेष शुभकामनाएँ
सादर