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शनिवार, 17 अगस्त 2019

1492... जंजीर


जंजीर के लिए इमेज परिणाम

खुद की सहूलियत देखने में मशरूफ इतने दूसरे की सुविधा भूल जाते हैं
जीवन पथ सुगम सुरजन में ना कोई आपस का उलझन ज्ञानी मूल जाते हैं

सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष


जिस परिवार का फूल था
मै, तो अब कांटा बन गया 
समाज के लिए उम्मीद का हाथ
घरवालो के लिए चाटा बन गया||


क़लम, लिखना चाहती है 'स्त्री'
कविता उड़ना चाहती है
क़लम के पैरों में पड़ जाती है जंजीर
काली स्याही बदल जाती है सफेद पाउडर में
कविता फड़फड़ा के रह जाती है 


विरह की ठंडी अग्नि में ,
एक ज्वाल दिखाई देती है ,
अभिलाषा पिय आलिंगन की ,
प्रति काल दिखाई देती है !


मुझे हैरानी होती है , की कैसे पढ़े लिखे समझदार , अमीर , ताकतवर लोग , क्यों और कैसे इक गंदे से दिखने वाले , मोटे भेंसे से , अनपढ़ जाहिल इन्सान के पैरो में लोट उसे अपना गुरु मान लेते है ...आखिर क्यों ?जिसके पास खुद के लिए कुछ नहीं है ...वोह आपको क्या देगा और सबसे बड़ी बात यह की आपको उससे कुछ चाहिए ही क्यों ? बस उनकी चिकनी चुपड़ी बाते , जिसमे सिर्फ सामने वालो को आने वाले भविष्य डर या लालच बेचा जाता है ... जब जब इन्सान अपने ऊपर से विश्वास खो देता है , उसे दुसरो के द्वारा शोषित होने से कोई नहीं रोक सकता .


हर तरफ बचाने की लड़ाई चल रही है यानि कि वे लड़ रहे हैं 
जिनके पास थोड़ा-बहुत कुछ है और जिसे वे बचाना चाहते हैं।
 फिर इस लड़ाई में वे क्यों शामिल होंगे जिनके पास कुछ नहीं है बचाने को? 
क्या करेंगे वे इस बचाने की लड़ाई में शामिल होकर? क्या यह हाशिये पर पड़े 
लगभग एक ही स्थिति में जी रहे दो लोगों को एक-दूसरे से अलगा कर 
उन्हें कमजोर करने की साजिश नहीं है जिसे भूमि अधिग्रहण के जरिये सरकार रच रही है? 

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फिर मिलेंगे...

हम-क़दम के चौरासीवें अंक के लिये विषय है-
तस्वीर   

इस विषय पर आप अपनी रचना हमारे ब्लॉग पर बायीं ओर दिये ब्लॉगर संपर्क फॉर्म के ज़रिए 17 अगस्त 2019 शनिवार सायंकाल 3:30 बजे तक भेज सकते हैं। चयनित रचनाएँ आगामी सोमवार को प्रकाशित होंगीं।  
उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत है कविवर बृज नारायण चकबस्त जी की रचना 'पयामे-वफ़ा'

'हो चुकी क़ौम के मातम में बहुत सीनाज़नी
अब हो इस रंग का सन्यास ये है दिल में ठनी

मादरे-हिन्द की तस्वीर हो सीने पे बनी
बेड़ियाँ पैर में हों और गले में क़फ़नी

हो ये सूरत से अयाँ आशिक़े-आज़ादी है
कुफ़्ल है जिनकी ज़बाँ पर यह वह फ़रियादी है

आज से शौक़े वफ़ा का यही जौहर होगा
फ़र्श काँटों का हमें फूलों का बिस्तर होगा
फूल हो जाएगा छाती पे जो पत्थर होगा
क़ैद ख़ाना जिसे कहते हैं वही घर होगा

सन्तरी देख के इस जोश को शरमाएँगे
गीत ज़ंजीर की झनकार पे हम गाएँगे'

आज बस यहीं तक 


9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर....
    सदा की तरह बेहतरीन
    सादर नमन

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुंदर.....
    आभार आदरणीय आंटी आप का.....

    जवाब देंहटाएं

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