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शुक्रवार, 5 जुलाई 2019

1449..मन की गति न समझ सका मैं

स्नेहिल नमस्कार
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मानसून की असमानता का असर दिखाई देने लगा है।
प्रकृति का वरदान जो कहीं अभिशाप भी है। कुछ मूलभूत समस्यायें हैं जो वर्षो से त्यों की त्यों हैं हर बार मानसून के पहले बेहतरीन प्रबंधन का महल खाड़ा किया जाता है जो बारिश की बौछारों के साथ भरभराकर गिर जाता है।
हम सारी समस्याओं का दोष सरकार और प्रशासन के सर मढ़कर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते है।
काश कि हम खामियाँ गिनाने के पहले कोई एक खामी भी सुधारने में अपना योगदान दे पाते तो तस्वीर कुछ और होती।

चलिए आज की रचनाएँ पढ़ते है-

शशि पुरवार.....साँठ-गाँठ का चक्कर

जाते जाते खा जाने वाली निगाहों से आनंदी को देखा।  मन ही मन में बैर लिए हीरालाल के दिल में बदले की आग भभक रही थी। अब वह मौके की ताक में बैठा था।  जल्दी ही मौके की तलाश पूरी हुई।  आखिर वह दिन आ ही गया जब कार्य को अंजाम देना था। अम्मा जी अपने बड़े बेटे के साथ १५ दिन तीरथ करने चली गयी। भोले भंडारी को सब समझा कर गयी, शेष अपने भरोसे के कारीगर को बोल गयी सब संभाल ले।  
★★★★★★★

अमित निश्छल.....सो जा चाँद दुलारे

मन की गति ना समझ सका मैं, ना तुमको समझाता
जबरन कल की सुबह बनेगा, सूरज भाग्य विधाता;
यही जगत की रीत बुरी है, दुखी बहुत जग सारा
सो जा चाँद, दुलारे ...
★★★★★
रेवा टिबड़ेवाल...बस्ती

लुटती है बीच सड़क इज़्ज़त
पर सभी चुप होकर 
रंग मिला कर 
बैठ जाते हैं शांत
कोई इंकलाब पैदा नहीं होता
नित नई लाशें 
अपने रंग के कंधों पर 
ढोई जाती हैं
आम आदमियों का
कोई रंग नहीं होता
इसलिए हर एक रंग की लाशों को 
ढोते-ढोते इनके काँधे 
बदरंग हो चुके हैं

★★★★★★

दिलबाग सिंह "विर्क"

लड़कियाँ चिड़ियाँ नहीं होतीं
पर तो कुतर देती है दुनिया
घर बन जाते हैं पिंजरा
दरिंदे भी फैलाए रखते हैं जाल
मगर हौसले के दम पर
नभ छू ही लेती हैं लड़कियाँ
★★★★★

जयश्री वर्मा.....कहाँ से लाओगे?

मुहब्बत में दूरियां,बेचैनियाँ बढ़ाएंगी,मैंने माना ,
अगर राहें जिक्र करें मेरा,तो तुम लौट ही आना ,
के फूल,बाग़,नदी,और गलियां पूछेंगे बार-बार ,  
अपने ही क़दमों के खिलाफ,कैसे बढ़ पाओगे ?

★★★★★

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हमक़दम के विषय के लिए
यहाँ देखिए


कल का अंक पढ़ना न भूलें
कल आ रही हैं विभा दी हमेशा की तरह 
अपनी खास प्रस्तुति के साथ।

#श्वेता सिन्हा

15 टिप्‍पणियां:

  1. मानसून की असमानता
    कारण और कर्ता हम सब ही है..
    वृक्ष नहीं, जमीनों ने डामर के कपड़े पहन लिए है
    दोना-पतरी छोड़ डिस्पोजल शुरु किए
    सही समझाईश के साथ बेहतरीन प्रस्तुति..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. प्रकृति का बदला भयानक होता जा रहा... वक़्त हाथ से निकलता जा रहा है..

    चेत जागृत हो

    अति सुंदर प्रस्तुतीकरण

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह!!श्वेता ,सुंदर प्रस्तुति । मानसून की असमानता क्या रंग लाएगी ,जानकर भी अनजान बने बैठे हैं हम ...
    समय रहते कुछ चेतना होगा ...।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर प्रस्तुति बेहतरीन रचनाएं सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई

    जवाब देंहटाएं
  5. सुन्दर प्रस्तुति हमें शामिल करने हेतु हृदय से आभार

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति 👌
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  7. सुंदर प्रस्तुति प्रिय श्वेता। जयश्री वर्मा जी के ब्लॉग से आज ही परिचय हुआ। बहुत बहुत आभार इस संकलन के लिए।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर धन्यवाद आपका मीना शर्मा जी मेरी रचना और मेरे ज़िक्र के लिए !🙏 😊

      हटाएं
  8. वाह! सार्थक भूमिका के साथ अपने संकलन में एक नवीनता का समावेश श्वेता जी की प्रस्तुति का स्वभाव है। बधाई और आभार।

    जवाब देंहटाएं
  9. सार्थक चिंतन देती भुमिका के साथ शानदार प्रस्तुति।
    सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  10. मेरी कविता " कहाँ से लाओगे "को पांच लिंकों का आनन्द में स्थान देने के लिए आपका सादर धन्यवाद श्वेता सिन्हा जी !🙏 😊

    जवाब देंहटाएं

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