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शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

1232...दिल के दर्द की दवा किसने दी है.....

30 नवंबर 1944

देश की चर्चित हिंदी लेखिका एवं दिल्ली साहित्य अकादमी की उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा का आज जन्मदिन है। वह अकादमी उपाध्यक्ष मनोनीत किए जाने पर सुर्खियों में आ जाती हैं तो कभी अपने वैवाहिक जीवन पर व्यक्त विचारों और कृतियों में स्त्रियों पर साहसिक लेखन के लिए। अलीगढ़ (उ.प्र.) के सिकुर्रा गांव की रहने वाली प्रसिद्ध कथा लेखिका एवं दिल्ली हिन्दी अकादमी उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा का आज (30 नवंबर) जन्मदिन है। उनके जीवन का शुरुआती दौर बुंदेलखण्ड में बीता है। अब लंबे समय से दिल्ली में रह रही हैं। किसी भी विषय पर स्पष्ट, बेबाक बयानबाजी और निर्भीक लेखन के लिए चर्चित पुष्पा जी 
अत्यंत प्रतिभा संपन्न लेखनी की धनी हैं।
उनके द्वारा रचित उपन्यास, कहानी संग्रह,कविता संग्रह,आत्मकथा, यात्रा-संस्मरण,लेख संग्रह साहित्य की अनमोल धरोहर है। उनके जन्मदिन पर अनंत शुभकामनाएँ ।
पढ़िए उनकी लिखी एक कहानी
बाद में कारण समझ में आ गया था, जब मैंने सारी औरतों को एक ही भाव से आह्लादित देखा। उमंगों-तरंगों का भीतरी आलोड़न चेहरों पर झलक रहा था। ब्लॉक प्रमुख की पत्नी होने के नाते घर-घर जाकर अपनी बहनों का धन्यवाद करना जब संभव नहीं हो सका तो मैं ‘पथनवारे’ में जा पहुँची। आप जानते तो हैं कि हर गाँव में पथनवारा एक तरह से महिला बैठकी का सुरक्षित स्थान होता है। गोबर-मिट्टी से सने हाथों, कंड़ा थापते समय, औरतें अकसर आप बीती भी
एक-दूसरे को सुना लेती हैं।
★★★★★

चलिए अब आज की रचनाएँ पढ़ते हैं
★★★
आदरणीया शशि पुरवार जी


जीवन तपती रेत सा, अंतहीन सी प्यास
झरी बूँद जो प्रेम की, ठहर गया मधुमास
ठहर गया मधुमास, गजब का दिल सौदागर
बूँद बूँद भरने लगा,  प्रेम अमरत्व की गागर
कहती शशि यह सत्य, उधेड़ों मन की सीवन
भरो सुहाने रंग, मिला है सुन्दर जीवन

★★★★★
आदरणीय दिलबाग सिंह'विर्क' जी

बड़ा महँगा पड़े है दस्तूर तोड़ना 
वफ़ा क्यों की, इसलिए सज़ा दी है। 

बाक़ी रहते हैं अक्सर ज़ख़्मों के निशां 
यूँ तो बीती हुई हर बात भुला दी है। 
★★★★★
आदरणीया डॉ.वर्षा जी

अधमरी सी चेतना के चिन्ह होते हैं लगे
भोथरे से फूल पर या जंग खाए पात पर

बुजबुजाती झाग वाली धूसरी धर्मांधता
थोकने की साजिशें होतीं सदा नवजात पर
★★★★★
आदरणीया दीपशिखा जी

झंकृत जीवन-वीणा पर
उर ने छेड़ी
तान है
कामनाओं के 
इंद्रधनुष ने

सजाया नया वितान है
★★★★★
आदरणीया अनिता जी

जो बेशर्त बरसता निशदिन 
निर्मल जल धार की मानिंद,
स्वर्ण रश्मियों सा छू लेता
अमल पंखुरियों को सानंद !

कर हजार उसके चहूँ ओर
थामे हैं हर दिशा-दिशा से,
दृष्टिगोचर कहीं ना होता
इस जीवन का अर्थ उसी से !

★★★★★

आदरणीया अपर्णा जी

आंखों से लुढ़कने वाले आँसू
रेत का दामन थाम
बस गए हैं आंखों में,
लौट आने की उम्मीद में,
गायब हो रही हैं पगडंडियां,
उदास हैं अम्मी और अब्बू!
न पैसे न औलाद,
कोई नहीं लौटता,
निगल लेती है मजबूरी,
गुम हो रही है पानी से तरंग
★★★★★
और चलते-चलते आदरणीया मालती जी की
लेखनी से पढ़िए
वो नहीं आया
गरमाहट से ठीक हो जाएगा इसी उम्मीद से हम 
अंदर जाने लगे, बड़ी बेटी अंदर गई पर मेरे जाने 
से पहले ही वह पिल्ला अंदर चला गया। मैंने उसे 
बाहर निकाला और फिर जैसे ही अंदर जाने के 
लिए पैर बढ़ाती वह मेरे पैर के नीचे से मुझसे 
पहले ही अंदर होता। हमें उसकी चालाकी पर 
हँसी भी आ रही थी, उसकी दयनीय दशा पर 
दया भी आ रही थी पर अगर उसे अंदर रखते 
तो वो घर में गंदगी फैलाता इसका भी डर था, 
समझ नहीं आ रहा था क्या करें...
कुछ देर के लिए तो यह अंदर जाना-बाहर 
आना खेल सा बन गया पर 
ऐसा कब तक चलता! मैंने अपने हसबेंड को 
फोन करके उन्हें सारी बात बताई और उस पिल्ले 
की चतुराई भी तो उन्होनें सलाह दी कि उसे गेट 
के अंदर आने दूँ और किसी छोटी रस्सी से अंदर 
ही गेट से बाँध दूँ।
★★★★★
आज का यह अंक आपसभी को
कैसा लगा?
कृपया अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया
के द्वारा अपने सुझाव 
अवश्य प्रेषित करें।

इस सप्ताह के हमक़दम के 
विषय के लिए


कल का अंक पढ़ना न भूलियेगा
कल आ रही है आदरणीया विभा दी
अपनी विशेष प्रस्तुति लेकर।

आज के लिए इतना ही

गुरुवार, 29 नवंबर 2018

1231....आ गयी सर्दी भी मख़मली धूप लेकर .....

सादर अभिवादन। 

आ 
गयी 
सर्दी भी 
मख़मली 
धूप लेकर 
कुहाँसा छा रहा 
दृश्य अदृश्य होने। 

आइये अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें -



इतना आसन नहीं
 सहेजना उसको
जो जैसा दीखता है
वही हो तब समय भी
ठहरना चाहता है


My photo

बारहा मखमली सुरों में
सुन रही हूँ मैं,
अनुराग भरी बांसुरी की
मद्धिम धुन !!!
भटकती हूँ तलाश में
उसी आवाज की मैं,
अपनी ही सुरभि से मदहोश 
ज्यों कस्तूरी हिरन !




कामयाबी पे मिलते है गले
बेगाने भी अपनो की तरह
सख्त राहों में हमकदम बने
वो फरिश्ते कम ही होते है




बस वही मन भा गया
मन शहर पर आ गया
नही रहना उस विराने में
इसी नगर में रहना
था प्रेम अति गहरा
पति रोक न पाया
उसे लेकर शहर आया



अम्ब !आपके आदर्शो को मैं अपनाता,
     कर्तव्यों प्रति रहूँ समर्पित यह मन भाता l
  यही माँगता प्रभु से अक्षणु रखना नाता,
श्रृद्धा सुमन सदा चरणों में रहूँ चढाता l




फिर गूंजती है प्रतिध्वनि,
वादियों में कहीं,
दबी जुबाँ भी कोई, गर पुकार ले ....
अजीब से हैं ये फासले....




कोई न पाए इसको तोड़
बेटियां है पर नहीं कमजोर
माँ काली का है यह वरदान
बेटियां विधाता का अनुपम उपहार
सृष्टि की यह अनमोल कृति
नारी रिश्तों की है जननी

चलते-चलते गुज़रिये एक अनूठे एहसास से 
"पाँच लिंकों का आनन्द"
ब्लॉग के एडमिन भाई कुलदीप जी की 
एक मार्मिक रचना के ज़रिये -


कुलदीप ठाकुर...

एक की आंखों ने
बुझी हुई आंखों में भी 
अपने लिये प्यार देखा,
.... कहा, मेरी आंखें हैं तुम्हारे लिये.....
मेरी बुझी हुई  आंखों ने भी
इनकी आंखों में
उनकी आंखों की तरह
...कभी लोभ नहीं देखा.....

हमक़दम के विषय के लिए
यहाँ देखिए

आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले गुरूवार। 
शुक्रवारीय प्रस्तुति - आदरणीया श्वेता सिन्हा 

रवीन्द्र सिंह यादव 

बुधवार, 28 नवंबर 2018

1230... आसमान की खुली छाती पर...



।।उषा स्वस्ति।।

"असफलता एक चुनौती है.. स्वीकार करो..
क्या कमी रह गयी, देखो और सुधार करो..
जब तक ना सफल हो नींद-चैन को त्यागो तुम..
संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम..
कुछ किये बिना ही जयजयकार नहीं होती..
हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती."

सुप्रसिद्ध कवि, लेखक व साहित्य 
एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित आदरणीय हरिवंश राय बच्चन जी 
की जयंती पर  विनम्र श्रद्धांजलि
 के साथ आज की रचनाओं पर नज़र डालें..
रचनाकारों के नाम क्रमानुसार पढ़ें..✍
💢

आ० जफ़र अरोली जी
आ० मुकूल श्रीवास्तव जी
आ० उषा किरण जी
आ० अजित गुप्ता जी और
आ० अनिता सैनी जी
💢

चिता की आग में जल रहा हूँ मै ,
तेरे मिलने को मचल रहा हूँ मै,
एक रोज़ कभी मिली थी फ़ुलो की सेज़,
जबकि रोज़ काँटों पर चल रहा हूँ मै ,
💢

उधर तुम चैट पर जल रही होती हो कभी हरी तो कभी पीली और इधर वो तो बस लाल
 ही होता है. एप्स के बीच में फंसी जिन्दगी वो जाना भी नहीं चाहता था और जताना भी नहीं. वो जितने चैटिंग एप्स डाउनलोड 
करता वो उससे उतना ही दूर जा रही थी. अब मामला “जी चैट”  बत्तियों के हरे और लाल होने का नहीं था. अब मसला जवाब
 मिलने और उसके लगातार ऑन लाइन रहने के बीच के फासले का था.वो उसे अक्सर उसे पोक करता वो चुपचाप 
उस पोक मेसेज को डिलीट कर ..💢
शब्द
नन्हीं उँगलियों से
पंजों के बल उचक कर
लिखती रहती शब्द अनगिनत
तो कभी
बाथरूम की प्लास्टर उखड़ी
दीवारों पर दिखतीं..
💢

फिल्म 102 नॉट ऑउट का एक डायलॉग – 
चन्द्रिका को तो एलजाइमर था
 इसलिये वह सारे परिवार को भूल गयी लेकिन उसका बेटा अमोल बिना अलजाइमर के ही सभी को भूल गया!
मोदी को अलजाइमर नहीं है, वे अपने नाम के साथ अपने पिता का नाम
 भी लगाते हैं, राजीव गांधी को भी अलजाइमर नहीं था, फिर वे अपने पिता का
 नाम अपने साथ क्यों नहीं लगाते थे?
 राहुल गाँधी अपनी दादी का नाम खूब भुनाते हैं ..
💢

ख़ामोशी से एक टक ताकना,
उत्सुकता भरी निगाहें ,
अपनेपन से  धड़कती, 
 धड़कनों की  पुकार,
ओर कह रही  कुछ पल मेरे पास   बैठ  !!
 एक कप चाय का बहाना ही क्यों न हो
💢
इसी के साथ आज की प्रस्तुति यहीं तक..

हमक़दम के विषय के लिए

यहाँ देखिए

।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍








मंगलवार, 27 नवंबर 2018

1229....झुग्गियो मे सर्द रातें रो रहा है हिन्दुस्तान ....


जय मां हाटेशवरी.....
सोच रहा हूं......
ब्लौग कितना अच्छा माध्यम है.....
अपने विचार रखने का......
फिर न जाने क्यों......
ब्लौगर कम हो रहे हैं.......
स्वागत है आप सभी का......
अब पेश है.....मेरे द्वारा प्रस्तुत चंद लिंक.....


कैसे गोरे काले एक
इन्सान चाहिए था जी-
कश्मीर से कुमारी कन्या
एक हिन्दुस्तान चाहिए था जी -
कैसा उंच नीच भेद 
जाति वर्ग वाद कैसा ?
हम सब भारतवासी एक
जुबान चाहिए था जी -



बोला- वाघेला जी सवेरे-सवेरे अपने गाँधीनगर स्थित आवास से घूमने निकले |वे अपने साथ कुछ रोटियाँ भी ले गए थे |जब वे एक गौमाता को रोटियाँ खिलाने लगे कि गौमाता ने उन पर हमला कर दिया |
हमने कहा-  गाँधीनगर में तो गाय रखने पर भी प्रतिबन्ध है तो सड़क पर गाय कहाँ से आगई ? उसे तो किसी गौपालक के यहाँ या 
गौशाला में होना चाहिए था |
बोला- गौ पालक गाय से नहीं यूरिया से दूध बनाते हैं और गौशाला में गायें नहीं, गौशाला की ग्रांट के कागजात रहते हैं |



रूहें सर-ए-राह जब बेपर्दा हो निकलती हैं !!



 कर्ज की मार
मंहगाई का वार 
टूटी कमर |





क़र्ज़ किसपे कितना है बस पैमाना यही
रफ़ूचक्कर होते बड़े जेल जाता है किसान
कौन सी सीख देते अपनी पीढ़ियों को हम
विज्ञान मद्दिम है,मान्यताओ का है निज़ाम



किस मुंह से क्या कहेंगे खुद ही सोचिए
तारीख पास बुला जब मांगेगा ज़वाब
इसे जितनी ज़ल्द समझ लें उतना अच्छा
मुहब्बत से बड़ा नहीं कोई इंक़लाब
का सेहरा तो बुढ़ापा कांटों का ताज होता है


छोटा से पैबंद न लगाने पर बहुत बड़ा छिद्र बन जाता है
धारदार औजारोंं से खेलना खतरे से खाली नहीं होता है

काँटों पर चलने वाले नंगे पांव नहीं चला करते हैं
चूहों के कान होते हैं जो दीवारों में छिपे रहते हैं

अब बारी है हम-क़दम की...
अंक सैंतालिसवाँ...
विषयः
आवाज़
प्रेषण की अंतिम तिथि शनिवार 1-12-2018 
तथा 

प्रकाशन तिथि सोमवार 3-12-2018 


आवाज़ दे रहा था आज 
बहुत दूर दूर से...

जैसे
कोई पहाड़ियों से
सदियों पुरानी घुटन भरी
आवाज़ आ रही है

और
मैं उसे सुनते हुए दौड़ लगाता
ऐसा लग रहा है कोई अपना सा
जो मुझे चाहते हुए छूट गया था

आज
फिर उसी आवाज़ ने मुझे खींच लिया
नहीं जानता कि क्या रिश्ता रहा होगा
मेरे और उनके बीच कुछ तो था या है

अब
कदम चल पड़े ही है तो उससे मिलना
भरसक कोशिशें रहेंगी मेरी उसे खोजने
उनकी आवाज़ ही है जो मेरी दिशा तय करें

लगता है
अब दिन दूर नहीं है सदियों पुराने
रिश्ते से फिर जुड़ जाऊं मैं और फिर
नया रिश्ता पुन: स्थापित होगा
न बिछड़ने के लिए ।


-पंकज त्रिवेदी


धन्यवाद।

सोमवार, 26 नवंबर 2018

1228...हम-क़दम का छियांलिसवाँ क़दम...


हिमांशु जोशी (४ मई १९३५ - २३ नवम्बर २०१८) 
हिन्दी के ख्यातिलब्ध कहानीकारउपन्यासकार और पत्रकार थे। उन्होंने 
अपने पेशेवर जीवन की शुरुआत पत्रकारिता से की थी। वे लंबे समय 
तक हिंदी पत्रिका 'कादम्बिनी' और 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के संपादन 
से जुड़े रहे। बाद के दिनों में उन्होंने 'वागर्थ' के संपादन का भी दायित्व संभाला। देहावसान से कुछ समय पूर्व तक वे नार्वे से प्रकाशित 
पत्रिका 'शांतिदूत' के सलाहकार संपादक रहे। 
हिंदी के मशहूर कथाकार हिमांशु जोशी का निधन हो गया. उनके निधन के साथ ही पहाड़ के लेखकों की बेहद स्थापित पीढ़ी में से एक और नाम कम हो गया. हिमांशु, मानव संवेदनाओं के लेखक थे. उनके उपन्यास और कहानियां, कहानी होते हुए भी सच लगती हैं.  त्याग, तपश्चर्या, विस्थापन, परिवार, करुणा, संघर्ष, शोषण, स्नेह, वासना, तिरस्कार के कई रंगों से रंगी उनकी रचनाएं केवल कल्पना पटल पर नहीं यथार्थ का चित्रण भी थीं.
ज़िंदगी की उदासियों में
चुटकी भर रंग घोले 
अश्क में मुहब्बत मिला कर
थोड़ा-सा रुमानी हो लेंं
-श्वेता
अब चलिए आज के.हमक़दम की रचनाओं की ओर
अब रुमानी शब्द का सही मतलब समझिए
हमारे पाठक रचनाकारों के द्वारा सृजित बहुमूल्य, सारगर्भित,
सृजनशील लेखनी द्वारा निःसरित
सार्थक अभिव्यक्ति से।
आइये आप भी साहित्य सरिता में गोते लगाइये-
मीना भारद्वाज

झील का किनारा और ऊँचे पहाड़ 
हरी-भरी वादी में वक्त बितायें । 
मन ने ठानी है आज 
हम भी रूमानी हो जाएँ ।।
★★★★★
आदरणीय पुरुषोत्तम जी

हमेशा की तरह, है किसी दिवास्वप्न सा उभरता,
ख्यालों मे फिर वही, नूर सा इक रुमानी चेहरा,
कुछ रंग हल्का, कुछ वो नूर गहरा-गहरा.......
हमेशा की तरह, फिर दिखते कुछ ख्वाब सुनहरे,
कुछ बनते बिगरते, कुछ टूट के बिखरे,
सपने हों ये जैसे, किसी हकीकत से परे......
आदरणीया साधना वैद जी की दो रचनाएँ

पन्नों के बीच
सूखी सी पाँखुरियाँ
गीली सी यादें

 तुम्हारी बातें
जब आती हैं याद
जगातींं रातें 

भीगी सड़क
रिमझिम फुहार
हाथों में हाथ
★★★
साधना वैद 

ज़िंदगी के तिक्त सागर में समा ,
प्रेम की सरिता भी खारी हो गयी ,
खो गयी रूमानियत जाने कहाँ ,
कह सके ना चाह कर तुमसे कभी ! 
★★★★★
कुसुम कोठारी

फूल दिया किये उनको खिजाओं में भी
पत्थर दिल निकले फूल ले कर भी ।

रुमानियत की बातें न कर ए जमाने
अज़ाब ए गिर्दाब में गुमगश्ता है जिंदगी भी।
★★★★★★
आदरणीया अनिता जी

क़दमों  में  घुँघरू , थिरक रहा तन, 
 तरु  संग  इठलाये, झूम रहा  मन, 
 आँखों में झलके  प्रेम  की लगन, 
 बावरी   पवन का मिज़ाज   रूमानी.........
★★★★★
अभिलाषा चौहान

जीवन की अंतिम सांझ है ये
दीपक भी अब बुझने को है
जरा देना तुम अपना हाथ जरा
महसूस करूं गर्माहट जरा।

तुम मेरे कांधे पर सर रख दो
मैं तुमको फिर महसूस करूं
अब थोड़ा सा रूमानी होते हैं
बस प्रेम का जीवन जीते हैं।
★★★★★★
आशा सक्सेना

यूँ तो हैं
साधारण नयन नक्श
पर दिल है बहुत रूमानी
यह  बात कम ही जानते हैं
जो जान जाते हैं
★★★★★
सुप्रिया रानू
खिल गए पीले टहटहाते फूल 
हरी पतियों के बूटों पर,सरसो के,

मूंगफलियों के दानों 

की मिठास अब भी वही है 

जैसे रस घुला हो बरसो के,

कोहरो ने जबसे घर बना डाला

है जमीन के आंगन में 
जैसे आलम धरा का सारा आसमानी हो गया
तुम्हारी आहटों से ही देखो 
कैसे मंजर रूमानी हो गया...
★★★★★
 आदरणीया रेणु जी की लेखनी से
रूमानियत का  है करिश्मा आपकी ,
  मुझसे ही मुझको  मिलाया आपने !


हुआ एक पल भी दूभर बिन आपके ,

   खुद का यूँ आदी बनाया आपने !
★★★★★
और चलते-चलते
आदरणीय शशि जी की लेखनी का 
अलग अंदाज़
रुमानी महफ़िल में नफ़रतों के ये सौदागर!

रूमानी महफ़िल की क्या बात करूँ
नफरत के सौदागर संगीन लिये खड़े हैं
जो अपने घरों को देवालय बना न सकें
वे जुबां पर खुदा का पैगाम लिये खड़े हैं
 बोलों हम क्यों  राम-रहीम के इस वतन में
 फिर सियासत का यह जाम लिये खड़े हैं
 इस जग में पल भर तो मुस्कुरा लेने दो
 ये मरघट भी कफन तैयार लिये खड़े हैं ..

★★★


सुनिये मेरी पसंद का एक गीत

  ★
आज का यह हमक़दम का अंक आपको
कैसा लगा
कृपया अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया
प्रेषित करें।
आप सभी के अतुलनीय सहयोग
के लिए
सादर आभार ।



दर्द को तवज्ज़ो कितना दें
दामन रो-रो कर भीगो लें
चुभते लम्हों को दफ़न करके
बनावटी चेहरों पे कफ़न धरके
वफ़ा की बाहों में सुकूं से सो लें
थोड़ा-सा रुमानी हो लें