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गुरुवार, 17 मई 2018

1035...जो बोया है वही काटोगे, यही दस्तूर है जीवन का...

सादर अभिवादन।
चुनावी रैलियों में फँसा देश,
वाराणसी में सरकारी लापरवाही का क्लेश,
लाशों की सौदेबाज़ी में इंसानियत को शर्मसार करता परिवेश,
कर्नाटक में राजनीति को सबक़ सिखाता जनादेश,
राष्ट्र-निर्माण की आड़ में जनसेवक मानते ख़ुद को नरेश!
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आज से माह- ए- रमज़ान का आग़ाज़..
लगभग सोलह जून को ईद का उत्सव सारे देश में मनाया जाएगा
हर आम व ख़ास से गुज़ारिश  है कि सारे देश में अमन (शान्ति) बनाए रखें

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चलिए अब रुख़ करते हैं आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर -




जब प्राण संकट में पड़ जाते हैं,

भौतिक सम्पदा काम नहीं आती है.

मुक्ति मिलते ही फिर भागते हो, यही दस्तूर है जीवन का। 

नैतिकता नहीं है अब तुम में,

फिर भी ढूंढते हो तुम औरों में,

जो बोया है वही काटोगे, यही दस्तूर है जीवन का।




कूए ग़ायब हो गये ,   सूखे  पोखर - ताल !

पशु - पक्षी और आदमी , सभी हुए बेहाल !!

:

धरती व्याकुल हो रही , बढ़ती जाती प्यास !

दूर  अभी  आषाढ़  है , रहने  लगी  उदास  !!






यह सिर्फ संयोग नहीं वरन उसी सांस्कृतिक विरासत का सुखद परिणाम है, जिसकी चर्चा वे स्वयं करती हैं. गीत-ग़ज़ल-मुक्तक पर समान रूप से अधिकार रखने की कला उनके श्रम का ही नहीं वरन उस सांस्कृतिक विरासत के हस्तांतरण का भी प्रतिफल है जिसे अनिता जी ने कलम और भावनाओं के सहारे एकाकार बनाया हुआ है. उनकी कही-अनकही के आगे का संसार माँ के आँचल में पल्लवित होता है, जहाँ एहसास है, ज़िन्दगी है, कामना है. उनका अनमना-मन शरद में गाँव की यात्रा करता है तो चाँद को आवेदन करता है कि उतर आ धरती पर आज करेंगे बात. 




सदा रहे निस्वार्थ भावना, हो  जग  का कल्याण,
 सतत साधना के ही बल पर,बनती निज पहिचान,





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फिर मुझे सच का पता चला। मैं बदहवास सी भागती हॉस्पिटल पहुँची जहाँ तुम्हारी माँ मौत से लड़ रही थी। ये मेरी बदकिस्मती थी या सच को इसी तरह से सामने आना था कि मेरी आँखों के सामने माँ के वो आखिरी शब्द निकले...बहू का ध्यान रखना। तुम्हारी पत्नी तुम्हें ढाँढस बंधा रही थी। मेरे कदम खुद-ब-खुद पीछे हट गए। कुछ भी नहीं बचा था मेरे पास, सांत्वना के दो शब्द भी नहीं। मैं हॉस्पिटल से बाहर आ गयी। ये तय नहीं कर पा रही थी कि मैं छली गयी या नियति ने मेरे साथ कोई नाइंसाफी की। इतना सब कुछ हो गया और तुमने मुझे सिर्फ दो बोल बोले..सॉरी। क्या इतना कमजोर था मेरा प्यार जो सच नहीं सुन पाता?




तीखी उनकी धार, नहीं दरबार सहेगा !
चंवर बादशाही से ही,तलवार बदल लें !

कोई मसालेदार खबर इन दिनों न आई 
उनको कहिये अपने गोतामार बदल लें !


My photo

तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते फिरो
कट जाएँ मेरी सोच के पर, तुमको इससे क्या
औरों के हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या

हम-क़दम के उन्नीसवें क़दम
का विषय...
...........यहाँ देखिए...........

फिर मिलेंगे अगले गुरूवार।
कल आ रही हैं आदरणीया श्वेता सिन्हा जी अपनी प्रस्तुति के साथ।
रवीन्द्र सिंह यादव 

15 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात रवीन्द्र भाई
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    अच्छा चयन
    आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. शानदार प्रस्तुति।
    समयानुरूप विषय वस्तु, सुंदर लिंकों का चयन, सभी रचनाकारों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  3. कुछ नया है आज की सुन्दर प्रस्तुति में।

    जवाब देंहटाएं
  4. समयानुकूल शानदार भूमिका के साथ सुंंदर संकलन
    सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवम् धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  5. शानदार प्रस्तुतिकरण उम्दा लिंक संकलन...

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुन्दर हलचल प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  7. शुक्रिया रवींद्र जी,मेरी रचना की पंक्ति को पांच लिंकों का आनंद पर शीर्षक बनाकर जो सम्मान आपने दिया है उसके लिए आभार, उम्दा प्रस्तुति के लिए बधाई। इस चर्चा में सम्मलित सभी रचनाकारों को भी बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  8. संक्षिप्त और सारगर्भित तथा प्रभावशाली भूमिका रखी है आपने रवींद्र जी।
    बहुत सुंदर रचनाओं का शानदार संयोजन है।

    जवाब देंहटाएं
  9. मेरी कहानी को स्थान देने के लिए बहुत-बहुत आभार।

    जवाब देंहटाएं
  10. सद्भावना का आग्रह करती सुंदर प्रस्तुति के लिए साधुवाद आदरणीय रवींद्र जी। सभी चयनित रचनाकारों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  11. रचना पसंद करने के लिए आभार आपका !

    जवाब देंहटाएं
  12. वाह बेहतरीन लिंक्स एवं प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं

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