मन ही मन फूट रहे हैं
लड्डू
सुनी सुनाई बातों पर तुम,
कभी ध्यान मत देना|
क्या सच है क्या झूठ सुनिश्चित ,
खुद जाकर कर लेना|
लड्डू
हवा ने अपनी तपिश तर की और
जेठ की लू थोड़ी देर के लिए शीतल हो चली।
“बुला रहे हैं प्यार से तो आ नहीं रहे हो बे
अबहियें कनवा तर दुई ठो लगाएंगे तो
अक्कल ठिकाने आ जायेगी तुम्हारी।”
भइया क्रोध से तमतमा रहे थे।
लड्डू
तरुवर की ऊंची डाली पर, दो पंछी बैठे अनजाने,
दोनों का हृदय उछाल चले, जीवन के दर्द भरे गाने,
मधुरस तो भौरें पिए चले, मधु-गंध लिए चल दिया पवन,
पतझड़ आई ले गई उड़ा, वन-वन के सूखे पत्र-सुमन
दो पंछी मिले चमन में, पर चोंचों में लेकर शूल चले,
दो मेघ मिले बोले-डोले, बरसाकर दो-दो बूंद चले ।
खान-पान की कृपा से, तोंद हो गई गोल,
रोगी खाते औषधी, लड्डू खाएँ किलोल।
लड्डू खाएँ किलोल, जपें खाने की माला,
ऊँची रिश्वत खाते, ऊँचे अफसर आला।
दादा टाइप छात्र, मास्टरों का सर खाते,
लेखक की रायल्टी, चतुर पब्लिशर खाते।
गाँव का खत::शहर के नाम
मैंने-तुमने सत्तू और
चूरमे के लड्डू जिन्हें
तुम सुबह से ओढ़नी में
छिपाए हुए थीं
याद दिलाते चलें....
दशहरा के दिन आयेंगे ....
शुभ प्रभात दीदी
जवाब देंहटाएंसादर नमन
आपका कार्यक्रम सफलता पूर्वक सम्पन्न हो गया होगा
लड्डू आप आने के उपरान्त हमे खिलाइएगा ही
शुभ कामनाएं आज की प्रस्तुति हैतु
सादर
बहुत सुन्दर संकलन!एक टटका अहसास!!!
जवाब देंहटाएंविभा जी के अपने अन्दाज की एक सुन्दर हलचल प्रस्तुति।
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जवाब देंहटाएंविभिन्न कार्यक्रमों की सफलता के साथ-साथ शब्द विशेष पर संकलन बहुत बढिया..
आभार।
बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार प्रस्तुति। सचमुच की हलचल। वाह
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