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गुरुवार, 21 सितंबर 2017

797......अपने आईने में चिपकी तस्वीर किसी दिन हटाया करो....


सादर अभिवादन। 
नवरात्रि-पर्व की हार्दिक शुभकामनाऐं। 
"पाँच  लिंकों का आनन्द" 800 वीं सीढ़ी से बस तीन क़दम दूर .... 
मन उल्लसित है एक मनोवैज्ञानिक दहलीज़ को छू लेने के लिए। आदरणीया  यशोदा बहन जी जुटी हैं 800 वें अंक को विशेषांक के तौर पर पेश करने हेतु। आप सभी सादर आमंत्रित हैं सार्थक चर्चा के लिए।  हम सदैव आपके स्नेह ,समर्थन ,मार्गदर्शन के आकांक्षी हैं। आपके अपार सहयोग ने ही आज हमें आल्हादित होने का अवसर दिया है। 

चलिए अब आज की पसंदीदा रचनाओं का रसास्वादन करते हैं -
स्त्री-विमर्श से जुड़ा एक बिषय पढ़िए 
आदरणीया  शबनम शर्मा जी की विचारणीय रचना में - 

मंगलसूत्र [कविता]........... शबनम शर्मा

 सिर्फ एक सोच,
मज़बूर करती मुझे 
काष कि उस दिन पहनाया होता 
किसी ने बाहों का मंगलसूत्र 
जो मुझे हर वक्त देता इक सकून
इस घर को अपना कहने के लिये।
                                      

"उलूक टाइम्स" ने हमारे बीच उल्लेखनीय उपलब्धि के तौर पर स्थान अर्जित किया है। पेश है एक ताज़ा रचना 
आदरणीय  प्रोफ़ेसर सुशील कुमार जोशी  द्वारा रचित -  

इतना दिखा कर उसको ना पकाया करो कभी खुद को भी अपने साथ लाया करो........ 


खूबसूरत हैं आप
आप की बातें भी
अपने आईने में
चिपकी तस्वीर
किसी दिन
हटाया करो


आधुनिक हिंदी कविता / नई  कविता को स्थापित करने वाले प्रखर चिंतक और कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का हम जन्म शताब्दी वर्ष  मना रहे हैं।  उनसे जुड़ीं यादें पेश  की हैं  आदरणीय बसंत त्रिपाठी जी ने - 


तो क्या इसे मुक्तिबोध की जीत नहीं माना जाएगा? 
मैं तो इसे मुक्तिबोध की रचनात्मकता की जीत ही मानता हूँ. क्योंकि वे ऐसे रचनाकार हैं जो अपने पाठकों - जिनमें उनके मुरीद और विरोधी दोनों ही शामिल हैं - को चुनौती देते हैं. कारण यह है कि मनुष्य का जो सभ्यतागत स्वभाव होता है, श्रेष्ठता का प्रदर्शन और निम्नता का गोपन, मुक्तिबोध उसे नहीं मानते. 
वे अपनी हर साँस को दर्ज करने को व्याकुल रहते थे. याद करो कला के तीन क्षण की संकल्पना. क्या उनके अलावा कोई दूसरा तुम्हें दिखाई पड़ता है जो पहले क्षण के हर अनुभूत सत्य को जिद के साथ, निर्ममता के साथ, डाँट-डपट कर या जबर्दस्ती तीसरे क्षण के पाले में घसीट कर ले जाने की कोशिश करे? मुझे तो नहीं दिखता. तुम्हें दिखे तो बताना. इसलिए शुरू में ही मैंने कहा कि मुझे मुक्तिबोध बेचैन करते हैं.

आदरणीया  अनीता जी के सृजन का अपना अनूठापन उनकी रचनाओं में खुलकर झलकता है।  पेश है उनकी एक ताज़ातरीन अभिव्यक्ति - 
 

 एक कलश मस्ती का जैसे...... अनीता जी 


टूट गयी जब नींद हृदय की
गाठें खुल-खुल कर बिखरी हैं,
एक अजाने सुर को भर कर
चहूँ दिशाएं भी निखरी हैं !

कम  समय में  अपनी पहचान कायम करने में सक्षम हुए 
सांध्य दैनिक "विविधा" पर आदरणीया यशोदा अग्रवाल  जी द्वारा प्रस्तुत शायर  राज़िक़ अंसारी जी की एक शानदार कृति - 

क़लन्दर तो ज़मीं पर बैठते हैं.....राज़िक़ अंसारी

बताओ किस लिये हैं नर्म सोफ़े 

क़लन्दर तो ज़मीं पर बैठते हैं

तुम्हारी बे हिसी बतला रही है

हमारे साथ पत्थर बैठते हैं 




आज बस इतना ही। 

आपकी मोहक प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा में। 

फिर मिलेंगे। 


8 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात..
    टूट गयी जब नींद हृदय की
    गाठें खुल-खुल कर बिखरी हैं,
    एक अजाने सुर को भर कर
    चहूँ दिशाएं भी निखरी हैं !
    श्रेष्ठ चयन
    आभार
    सादर....

    जवाब देंहटाएं
  2. शुभ प्रभात
    आदरणीय रवींद्र जी,
    800वें अंक की प्रतीक्षा है।
    सुंदर रचनाओं का संकलन आज के अंक में,प्रभावी प्रस्तुति करण।सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामना।

    जवाब देंहटाएं
  3. साधू साधू , बेहतरीन प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बढिया संकलन के साथ बेहतरीन प्रस्तुति।
    सभी रचनाकारों को बधाई।
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  5. उम्दा लिंक संकलन... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुतिकरण.....
    नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएं....

    जवाब देंहटाएं
  6. चर्चा में नये आयाम छूती पाँच लिंकों की हलचल के आज के अंक के शीर्षक पर 'उलूक' के सूत्र को स्थान देने के लिये आभार रवींद्र जी ।

    जवाब देंहटाएं
  7. शारदीय नवरात्र की बधाई और शुभकामनाएं ! पठनीय सूत्रों से सजी हलचल, आभार !

    जवाब देंहटाएं

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