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शनिवार, 15 जुलाई 2017

729... देवदूत



सबों को यथायोग्य
प्रणामाशीष

बेड़ा पार हो जाए 
जो मिल जाए



पर फिर जो कुछ हुआ उसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी,
 दो-तीन घंटे के अंतराल में ही मेरे सामने मेज पर दो लाख रुपयों का ढेर लगा हुआ था। 
ऐसी रकम जो हफ्तों से आँख-मिचौनी कर रही थी, मेरे सामने पड़ी थी।
 समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ क्या न कहूँ। हालत यह कि जुबान बंद, 
आँखें भीगी हुई और मन अपने सहयोगियों के उपकार के आगे नतमस्तक था।





लहू से सींचकर खेतों को, जो जीवन उगाता है,
जरा सी रोशनी देदो, उसे भी आशियाने की।।
खुदाओं की तरह, मेरी  अकीदत के जो वारिस है,
उन्हें आदत निराली है, हमें अक्सर रुलाने की ।।
मुझे कोई भी मुझ जैसा, मनाने वाला  हो 'मोहन'
ये ख्वाहिश है हमारी भी, कि थोड़ा रूठ जाने की ।।




जोर से इनसे मत भिड़ना 
ये सड़कों के सब कोलतार 
जो हाथ गलाते रहते हैं
ये आग के ऊपर रोजाना ही 
आते जाते रहते हैं
ये बेसब्री और सब्र के नीचे
कुछ बतियाते रहते हैं




प्रवहमान धारा से ही कलकल-छलछल का नाद निकलता है. 
यदि स्थिर जल से ऐसा स्वर निकले तो फिर यही समझा जाये कि 
उसकी गहरी छाती से असंतोष के बुलबुले निकल रहे हैं. 
मंद मंद डोलती पत्तियाँ और बहता पवन – 
दोनों एक दूसरे से पृथक नहीं होते.




हमारी दुनिया के लोगों से 
भरी पड़ी है दूसरी दुनिया पर 
सामंजस्य स्थापित करना 
बहुत ही कठिन है 
दूसरों के दुःख सुन कर 
समझ कर अपना दुःख 
तिनका सा लगता है


><><

फिर मिल्रेंगे

विभा रानी श्रीवास्तव



9 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात....
    सादर नमन दीदी
    बेहतरीन प्रस्तुति..
    आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर संकलन
    सभी रचनायें उम्दा हैं

    जवाब देंहटाएं
  3. सुरुचिपूर्ण संकलन के लिए साधुवाद!!!

    जवाब देंहटाएं
  4. सादर अभिवादन. सुंदर एवं विचारणीय सूत्रों का संकलन। समाज के उपेक्षित सरदारों का बखान करती बेहतरीन रचनाएं एवं तत्वज्ञान की चर्चा करते सूत्र। आभार सादर।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही सुन्दर उम्दा लिंक संयोजन...

    जवाब देंहटाएं
  6. सुंदर और जरा अलग हटकर सी रचनाओं का संकलन ।

    जवाब देंहटाएं

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