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शनिवार, 10 जून 2017

694 .... खून




सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष


खून नहीं पानी है
वृद्धाश्रम में जिंदगानी है


खून को क्या हो गया है

देखने को जब यहाँ कुछ भी नहीं है तो चलो
खिलखिलाती थीं कभी उन खिड़कियों को देख लें

अब कहाँ वो सुरमई आखें वो चेहरे संदली
वक़्त बूढ़ा हो चला है झुर्रियों को देख लें


खूनी हस्ताक्षर

उस दिन लोगों ने सही सही,
खूं  की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में,
मांगी उनसे कुर्बानी थी।


प्रेम

मगर आँख कोई नहीं खोल पाता।
कलेजा किसी का नहीं चोट खाता।
किसी का नहीं जी तड़पता दिखाता।
लहू आँख से है किसी के न आता।
चमक खो, बिखर है रहा हित-सिता 


नहीं होने से थोड़ा होना क्या सही है?

फिर मिलेंगे

विभा रानी श्रीवास्तव

8 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात दीदी
    सादर नमन
    खून .... कुछ लाइने

    मयखाने से
    पूछा आज इतना
    सन्नाटा क्यों है..??
    उसने कहा..
    साहब,
    लहू का दौर है,
    शराब कौन पीता है..!!
    .....अच्छी प्रस्तुति
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. इंद्रधनुष पर देर से नजर पड़ी :)
    बहुत सुन्दर ।

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय दीदी को सादर प्रणाम। खून में एक तरह का संगीत है जो हमें अनेक प्रकार के एहसासों की यात्रा करता है कभी खून उबल पड़ता है क्रांति के गीत सुनकर तो कभी खून प्रेम का सागर बन जाता है जिसमें हिलोरें लेती हैं अगणित भावनाएं। विचारणीय रचनाओं का संकलन।

    जवाब देंहटाएं
  4. उम्दा लिंक...
    सुन्दर संकलन

    जवाब देंहटाएं

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