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सोमवार, 5 जून 2017

689...रचनायें तेरा 'दर्पण'

                                                                   
झांक रहा हूँ 
मैं प्रतिक्षण 
देख ! तेरे 
अंतर्मन में 
रचनायें तेरा 'दर्पण' 
लाया ! अपने आँगन में 
आये हैं 
मेहमान यहाँ 
झांकने अपने बिम्ब अभी 
पाते हैं ! वे स्वयं सभी 
इन 'लिंकों' के 
संग्रह में 
सादर अभिवादन !
आप सभी महानुभावों का  
कुछ दिन पूर्व मैं यही सोच रहा था कि क्या हम रचनाकारों का मन सामान्य मानव से भिन्न है ? जो हम दूसरों से नहीं कहते,केवल अपने शब्दों से अभिव्यक्त करते हैं। 
या 
हमारा मन एक दूसरे 'ग्रह' का प्राणी, जिसे न 
खाने की इच्छा !
न कुछ पाने की 
न धन कमाने की 
इच्छा तो है, केवल स्वयं के रंग-बिरंगे स्वप्नों को 
गुनगुनाने की !
आज की प्रस्तुति इसी खोज में ,उन अबुझ विचारों के !
तो चलिए !
चलते हैं ..मेरे संग   
   



 इस चर-अचर संसार में छोटा हो या बड़ा सभी प्राणियों की महत्ता होती है ,राजा और उसके सत्ता की ,रंक और उसके निश्छल आशीर्वाद की, माँ का उसके बेटों के प्रति ,यदि ईश्वर है तो उसके भक्तों के प्रति ,महत्ता बिना ये संसार अधूरा है जिसकी महत्ता  
श्यामल 'सुमन' जी बताते हैं  


जब संकट में जान मुसाफिर 
लुप्त वहाँ सब ज्ञान मुसाफिर
जाने अनजाने सब कहते
बचा मुझे भगवान मुसाफिर


जीवन क्या है ? इसका उत्तर तो मैं भी नहीं जान पाया ! 
कई  विद्वान् इसे ईश्वर की अनमोल कृति !
 कुछ साहित्यकार इसे शब्दों में पिरोते हैं 
तो कुछ इसे मधुर संगीत बताते हैं 
किंतु आज इस रचना के माध्यम से
आदरणीय,''शशि पुरवार'' जी जीवन के अपने अनुभव बता रहीं हैं
   

नेह की, नम दूब से 
शबनम चुराएँ हम  
फिर चलो इस जिंदगी को 
गुनगुनाएँ  हम 

संभव है इस रचना का शीर्षक आपको विरोधाभास जान पड़ता हो ! चूँकि ये तो कवि की कल्पना है, हम कवियों की कल्पना ही विरोधाभासों से संलिप्त होती है ,कभी हम मृत्यु को जीवन बताते हैं तो कभी जीवन को ही मरण का चोला पहनाते हैं !
आदरणीय, "विशाल चर्चित" जी की ये रचना 
आपको जीवन के नये आयामों से 
साक्षात्कार कराती है


ना स्वप्न हो न हो कल्पना
ना योजना न तो सर्जना,
हो मेरे मस्तिष्क सुप्त
हो सकल स्मृति ही लुप्त...

कुछ कवि जिनके वर्णन में किसी चुनिंदा शब्द का प्रयोग न्यायपूर्ण नहीं लगता, उनमें से एक नाम 'ऊर्जावान'  युवा कवि आदरणीय 'पुरुषोत्तम जी' का है,जो 'प्रेम' हो या 'जीवन की सत्यता' सभी विधाओं में अपनी लेखनी कौशल में निपुण हैं जो इनकी रचनाओं के 'अलंकृत शब्दों' से प्रतीत होता है  


अब ...! प्रेम वात्सल्य यहीं कहीं गुम-सुम पड़ा है,
पाषाण से हो चुके दिलों में,
संकुचित से हो चुके गुजरते पलों में,
इन आपा-धापी भरे निरंकुश से चंगुलों में,
ध्वस्त कर रचयिता की कल्पना, रचा है हमने नर्क...

सत्य की खोज ! ये वाक्य आपने प्रायः सुना होगा परन्तु जो इस धरती पर उपस्थित है हमारे ही भीतर ,उसकी खोज जंगलों में क्यों ? मरुस्थलों में क्यों ? हिमालय में क्यों ? प्रकृति में क्यों ? 
जबकि हमारा अस्तित्व ही सत्य है ! अन्य सभी निराधार 
आदरणीय, "आदित्य कुमार तिवारी" जी की रचना जो 
अपने ही अंतर्मन में विचरण करती हुई  
खोज रही है जीवन का सत्य !


अंतर्तम के गहन सूक्ष्म में सत्य प्रकट है,
ढूंढ उसे जो लिया, कहाँ फिर कुछ संकट है।
पर तुम से उस तक की यात्रा ही जीवन है, 
ढूंढ रहे चहुँओर जिसे, वो अंतर्मन है।

.............
कवि होने के नाते 
अपने भावनाओं को 
शब्दों के पंख देना 
विचारों को आसमान 
उन्मुक्त देना 
यही मेरी 
कुशलता है 
मेरी लेखनी में 
जो चपलता है ! 
करता है, आश्वान्वित मुझको 
और मैं क्या कहूँ !
बस यही
'कवि' हृदय की 
प्रबलता है 

धन्यवाद। 

"एकलव्य" 



                                              

11 टिप्‍पणियां:

  1. वाह्ह्ह.लाज़वाब रचना विवेचना विविधतापूर्ण सुंदर लिंकों का चयन..प्रशंसनीय संकलन👌👌👌

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  2. शुभ प्रभात....
    सादर नमन
    उत्तम रचनाएँ
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरनीय एकलव्य जी, इतनी प्रशंसा एवं सम्मान हेतु आभार। आप स्वयं सम्मान के पात्र है।

    जवाब देंहटाएं
  4. शुभप्रभात....
    कल भारतीय क्रिकिट टीम की विजय काजश्न....
    यहां आज आप की प्रस्तुति का आनंद....

    बहुत सुंदर....
    आभार आप का....

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत बढ़िया संकलन एवम उम्दा विवरणात्मक प्रस्तुति। धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  6. bhut acche keep posting and keep visiting on www.kahanikikitab.com

    जवाब देंहटाएं
  7. एकलव्य जी शुभ प्रभात ! आपकी अभिव्यक्ति के साथ उत्कृष्ट रचनाओं के संयोजन के लिए हार्दिक बधाई। "पाँच लिंकों का आनंद " के सफ़र को सारगर्भित बनाने का प्रयास पाठक अपनी सक्रियता से सफल बनाने को आतुर हैं। सभी का सादर आभार।

    जवाब देंहटाएं

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