---

शनिवार, 6 अगस्त 2016

386 .... जाम




यथायोग्य सभी को
प्रणामाशीष

एक पोस्ट ही सात
नहीं नहीं चौदह
पोस्ट के बराबर लगा
विश्वास नहीं ही होगा
अपनी ही आखों से देखें





जब मिलकर चुपके हँसती थी
ह्दय द्वार तक नित आती थी
स्वर्णिम स्वप्न सजाती थी
चैराहे से वह दिल में आकर
पथ को रोज भुलाती थी।
अभिलाषाओं का जीवन पथ
पत्रों में भर लाती थी



गेरुआ तेरे नयना, मस्जिद हैं या जाम

प्यार करके डर कैसा, होंगे क्यो बदनाम
मीठे बोल जो बाला, ये ते है इल्हाम




बनैले ताल का फैला अतल जल
थे कभी आए यहाँ पर
छोड़ दमयंती दुखी नल
भूख व्याकुल ताल से ले
मछलियाँ थीं जो पकाईं
शाप के कारण जली हो
वे उछल जल में समाईं




मुझे लगा कि इससे ज्यादा लिंक देने से उबाऊ पोस्ट हो जायेगा 



फिर मिलेंगे ..... तब तक के लिए
आखरी सलाम



विभा रानी श्रीवास्तव





4 टिप्‍पणियां:

आभार। कृपया ब्लाग को फॉलो भी करें

आपकी टिप्पणियाँ एवं प्रतिक्रियाएँ हमारा उत्साह बढाती हैं और हमें बेहतर होने में मदद करती हैं !! आप से निवेदन है आप टिप्पणियों द्वारा दैनिक प्रस्तुति पर अपने विचार अवश्य व्यक्त करें।

टिप्पणीकारों से निवेदन

1. आज के प्रस्तुत अंक में पांचों रचनाएं आप को कैसी लगी? संबंधित ब्लॉगों पर टिप्पणी देकर भी रचनाकारों का मनोबल बढ़ाएं।
2. टिप्पणियां केवल प्रस्तुति पर या लिंक की गयी रचनाओं पर ही दें। सभ्य भाषा का प्रयोग करें . किसी की भावनाओं को आहत करने वाली भाषा का प्रयोग न करें।
३. प्रस्तुति पर अपनी वास्तविक राय प्रकट करें .
4. लिंक की गयी रचनाओं के विचार, रचनाकार के व्यक्तिगत विचार है, ये आवश्यक नहीं कि चर्चाकार, प्रबंधक या संचालक भी इस से सहमत हो।
प्रस्तुति पर आपकी अनुमोल समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक आभार।