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बुधवार, 29 जून 2016

348..मर्म धर्म का खो गया, खोया आपस का लाड़

सादर अभिवादन

समय सदा गढ़ता रहा, 
कर दुःखों के वार।
हँसकर हम सहते रहे, 
तब पाया सत्कार॥
-अनिता

चलिए चलते हैं आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर...
ये है तो नया ब्लॉग पर रचनाकार पुराने हैं
वर्डप्रेस में लिखते हैं अभी भी
यादें के नाम से यह ब्लॉग आज ही दिखाई पड़ा
पहली बार


पुष्पेन्द्र सिंह..
जीत जाने का हार जाने का
किसी को पाने का
खुद के टूट जाने का
फरेब और प्यार
विश्वास और घात
इसके कारण नहीं होते
ये तो बस माध्यम ही है.............



'वाॅव!!! डायमंड सेट! यह मेरे लिए है?'
'हां मेरी जान! तुम्हारे लिए।'
'लेकिन आज तो कोई सालगिरह नहीं है?'
'तुम्हें गिफ्ट देने के लिए मुझे किसी दिन की जरूरत थोड़े ही है। यह तुम्हारे लिए है 
और हां आज दिन भर मैं तुम्हारे साथ ही हूं।' रोहन ने लीना के गालों पर अपना हाथ रखते हुए कहा।
'अरे वाहहह! आज दिन भर तुम मेरे साथ हो! यह तो इस डायमंड सेट से भी बड़ा गिफ्ट है मेरे लिए।' 

जो 'लाई' फाँका किये, रहे मलाई चाट |
कुल कुलीन अब लीन हैं, करते बन्दर-बाट ||

दूध फ़टे तो चाय बिन, दिखे दुखी सौ शख्स।
गाय कटे तो दुख कहाँ, दिया कसाई बख्स ||


न जाने क्यों 
लौट आती हैं 
बार बार ज़हन में, 
किसी चलचित्र की तरह 
तैरने लगती हैं आँखों में, 
बचपन की अठखेलियाँ, 
छुटपन के दोस्त/सहेलियाँ , 
अल्हड़ सा यौवन , 
अनसुलझी पहेलियाँ ! 
याद तो होगा तुम्हें भी !! 

बरसा तो खूब जम कर शब भर पानी 
फिर भी तिश्नगी लब पर छोड़ गया है

गुल पत्ते बूटे शाख शजर हैरां हैरां से 
ये कौन हमें बे मौसम झिंझोड़ गया है

कुछ कमियाँ ...
कुछ नादानियाँ रही होंगी

कुछ भरोसे की ...
तो कुछ आशाओं की बात रही होगी

आज की अंतिम रचना
कुछ यूँ है..
मन धरती पर हैं उगे, संदेहों के झाड़।
जब छोटी सी बात भी, बनती तिल से ताड़।

मर्म धर्म का खो गया, खोया आपस का लाड़
अब आगन्तुक को मिलें, घर के बंद किवाड़॥

रचनाकार है... सुजानगढ़, राजस्थान की
-अनिता मंडा

इसी के साथ आज्ञा दीजिए
कल बारिश हो गई (संजय भाई आ गए)
तो नहीं आऊँगी
सादर..



6 टिप्‍पणियां:

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