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शनिवार, 2 अप्रैल 2016

260 .... शीर्षक नहीं .... बिन बिंदी लगे दुल्हन




सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

बेबकूफ बनोगे ?

यूँ तो इसका कोई खास महत्व नहीं रह गया है
क्योंकि रोज़ कई-कई तरह से आदमी बनता-बनाता है.
फिर भी, जैसे की परम्परा है कि
एक अप्रैल को आप ख़ास तौर से बेवकूफ बनाए जा सकते हैं





मेरे मन की बात

रात तकरीबन 2 बजे की बात है....
गहरी नींद में सो रहा था कि तभी मोबाइल पर मैसेज टोन बजती है....
उसके बाद कई ख्याल दिमाग में आने लगे....
शायद मेरी याद में सो नहीं पा रही पूर्व प्रेमिका का
ये मैसेज है या ना जाने किसी नई प्रेमिका का....
फिर एक हाथ से आंख मसलते हुए दूंसरे हाथ से मोबाइल उठाताया


रंगना छूटे सभी खिलोने 
बीती बातें समय सलोने 
दीवारों पर तस्वीरों में 
जड़ा हुआ बचपन रंग देना 
तुम ये मेरा मन रंग देना


नास्तिकता खूबसुरत है

एक अन्य आश्चर्य की बात है कि जहाँ सभी धर्म मनुष्य को
ईश्वर का रूप या फिर उसके द्वारा उत्पन्न मानते हैं,
वहीं किसी भी धर्म में मनुष्यों की समानता को पूर्ण रूप में
धरातल पर नहीं उतरा गया और प्रत्येक धर्म में विशेषाधिकार
युक्त एक वर्ग मौजूद रहा जो व्यक्ति और
ईश्वर के बीच के बिचौलिए का काम करता है



एक नयी शुरुआत

मैं लोक लुभावन वादे करूँ ,
तुम शर्म का आँचल पकडे रहो!
मैं जिद कर-कर के तुमसे पूछा करूँ,
पर.. तुम फिर भी इंकार करो!
मैं थक हार के फिर बैठ जाऊं......
तब जा कर तुम मेरे पास आओ




इलाही कैसा मंज़र है

कभी जब सामने उस ने कहीं इक आइना देखा
न जाने देख कर क्यूँ रास्ता अपना  बदलता है
बुलन्दी आसमां की नाप कर भी आ गए ताईर
इधर तू बैठ कर खाली ख़याली  चाल चलता है



एक कविता

इसे क्या पता कितना खोया है,
बेवक्त भी सोया है,
उठेगा, कर्म को कोसेगा, ...
जिंदगी की रेस में भटकेगा,


फिर मिलेंगे .... तब तक के  लिए

आखरी सलाम


विभा रानी श्रीवास्तव



2 टिप्‍पणियां:

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